महरियों ने एक स्वर से कहा- हम सब की सब चलेंगी।
'नहीं, मुझे केवल एक की जरूरत हैं। गुलाबी, तुम मेरे साथ चलोगी?'
‘सरकार जैसा हुक्म दें। बाल-बच्चों को महीने से नहीं देखा है।'
तो तुम घर जाओ। तुम चलोगी केसरी?'
कद तक लौटना होगा?'
यह नहीं कह सकती है।
‘मुझे चलने में कोई उजुर नही है, पर सुनती हूँ वहाँ का पहाड़ी पानी बहुत लगता है।'
'तो तुम भी धर जाओ। तू चलोगी अनसूया?"
सरकार, मेरे घर कोई मर्द-मानुस नहीं है। घर चौपट हो रहा है। वहाँ चलूंगी तो छटाँक भर दाना भी न मिलेगा।
तो तुम भी घर जाओ। अब तो तुम्ही रह गयी राधा, तुमसे भी पूछ लें, चलोगी मेरे साथ?'
हाँ, सरकार चलूंगी।'
'आज चलना होगा।'
जब सरकार का जी चाहे, चले।
'तुम्हें बीस बीधे मुआफी मिलेगी।
तीन महरिययों ने लज्जित हो कर कहा- सरकार, चलने को हम सभी तैयार हैं। आपका दिया खाती हैं तो साथ किसके रहेगी?
'नहीं, तुम लोगो की जरूरत नहीं। मेरे साथ अकेली राधा रहेगी। तुम सब कृतघ्न हो, तुमसे अब मेरा कोई नाता नहीं।
यह कह कर गायत्री यात्रा की तैयारी करने लगी। राधा खड़ी देख रही थी, पर कुछ बोलने का साहस न होता था। ऐसी दशा में आदमी अव्यवस्थित सा हो जाता है। जरा सी बात पर झुंझला पड़ता है और जरा सी बात पर प्रसन्न हो जाता है।
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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्राय शोक और चिन्ता में पड़े रहते। इन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उसके बिना उनका यहाँ जरा भी जी न लगता। सारे दिन अपने कमरे में पड़े कुछ न कुछ सोचते या पढ़ते रहते थे। न कहीं सैर करने जाते, न किसी में मिलते-जुलते। कृष्णमन्दिर की ओर भूल कर भी न जाते। उन्हें बार-बार यहीं पछतावा होता कि मैंने गायत्री को बनारस जाने में क्यों नहीं रोका! यह सब उसी भूल का फल है। श्रद्धा, प्रेमशंकर और बड़ी बहू ने यह सारा विष बोया है। उन्होने गायत्री के कान भरे, मेरी और से मन मैला किया। कभी-कभी उन्हें उद्भ्रान्त वासनाओं पर भी क्रोध आता और वह इस नैराश्य मे प्रारब्ध के