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प्रेमाश्रम

की एक छोटी सी संगत थी, विद्वानों के पक्षपात और अहंकार से मुक्त। वास्तव में यह सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि थी। यहाँ न ईर्षा का सन्ताप था, न लोभ का उन्माद, न तृष्णा का प्रकोप, यहाँ घन की पूजा न होती थी और न दीनता पैरो तले कुचली जाती थी। यहाँ न एक गद्दी लगा कर बैठता था और न दूसरा अपराधियों की भाँति उनके सामने हाथ बांध कर खड़ा होता था। यहाँ स्वामी की चुडकियाँ न थी, न सेवक की दीन ठकुरसोहातियाँ। यहाँ सब एक दूसरे के सेवक, एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। एक तरफ डाक्टर इन अली का सुदर बँगला था फूलो और लताओं से सजा हुआ। डाक्टर साहब अब केवल वही मुकदमें लेते थे जिनके सच्चे होने का उन्हें विश्वास होता था और उतना ही पारिश्रमिक लेते थे जितना रोजाना खर्च के लिए आवश्यक हो। संचय और संग्रह की चिंताओं से निवृत्त हो गये थे। शाम-सबेरे वह प्रेमशंकर के साथ बागवानी करते थे, जिसका उन्हें पहले से ही शौक था। पहले गमलो में लगे हुए पौधो को देख कर खुश होते थे, काम माली करता या। अब सारा काम अपने ही हाथों करते थे। उनके बँगले से मिला हुआ डाक्टर प्रियनाथ का मकान था। मकान के सामने एक औपधालय था। अब वे प्राय देहातो मे घूम-घूम कर रोगियों का कष्ट निवारण करते थे, नौकरी छोड़ दी थी। जीविका के लिए एक गौशाला खोल ली थी जिसमें कई पछाही गायें-भसे थीं। दूध-मक्खन बिकने के लिए शहर चला आता था। रोगियों से कुछ फीस न लेते थे। बाबू ज्वालासिंह और प्रेमशंकर एक ही मकान में रहते थे। श्रद्धा और शीलमणि मे खुब बनती थी। घर के कामों से फुरसत पावे ही दोनों चरखे पर बैठ जाती थी या मोजे बुनने लगती थी। प्रेमशंकर नियमानुसार खेत में काम करते थे और ज्वालासिंह नये प्रकार के करघो पर आप कपड़े बुनते थे और हाजीपुर के कई युवको को चुनना सिखाते थे। इस कला में वह बहुत निपुण हो गये थे। सैयद ईजाद हुसेन ने भी यही अड्डा जमाया। उनका परिवार अब भी शहर में ही रहता था, पर वह यतीमखाना यहीं उठ आया था। उसमे अब नकली नही, सच्चे यतीमों का पालन-पोषण होता था। सैयद साहब अपना 'इत्तहाद' अव भी निकालते थे और 'इत्तहाद' पर व्याख्यान देते थे, लेकिन चन्दे न वसूल करते थे और न स्वांग भरते थे। वह अब हिन्दू-मुसलिम एकता के सच्चे प्रचारक थे। यतीमखाने के समीप ही मायाशंकर का भित्र भवन था। यह एक छोटा स छात्रालय था। इसमे न अली के दो लड़के, प्रियनाथ के तीनों लड़के, दुर्गामाली का एक लड़का और मस्ता का एक छोटा भाई साथ-साथ रहते थे। सब साथ-साथ पाठशाला को जाते और साथ-साथ भोजन करते। उनका सब खर्च 'मायाशंकर अपने वजीफे से देता था। भोजन श्रद्धा पकाती थी। ज्ञानशंकर ने कई बार चाहा कि माया को ले जा कर लखनऊ के ताल्लुकेदार स्कूल में दाखिल करा दें, लेकिन वह राजी न होता था।

एक बार ज्ञानशंकर लखनऊ से आये तो माया के वास्ते एक बहुत सुंदर रेशमी सूट सिला लाये, लेकिन माया ने उसको उस वक्त तक न पहना जब तक मित्र-भवन के