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प्रेमाश्रम


थी, कितनी ही बार बल खाना पड़ा था, विरोधियों के सामने झुकना पड़ा था, तथापि उन्होंने अब तक प्रतिज्ञा का पालन किया था। बड़ी बहु की बात सुन कर प्रभाशंकर बड़े असमंजस में पड़े रहे। न तो जाते ही बनता था, न इन्कार ही करते बनता था। बगले झाँकने लगे। दयाशंकर ने उन्हें द्विविधा में देख कर कुछ उदासीन भाव से कहा, आपका जी न चाहता हो न चलिए, मुझ पर जो कुछ पड़ेगी देख लूंगा।

बड़ी बहू-नहीं, चले जायेंगे, हरज क्या है?

दयाशंकर-जब कभी कचहरी न गये तो अब कैसे जा सकते है। प्रतिज्ञा ने टूट जायेगी?

बड़ी बहू–भला, ऐसी प्रतिज्ञा बहूत देखी है। लाऊं कपड़े?

दयाशंकर नहीं, मैं अकेले ही चला जाऊँगा, आपके चलने की जरूरत नहीं।

यह कह कर दयाशंकर चले गये। बड़ी बहू भी पति को अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हुए घर में चली गयी। प्रभाशंकर मन में बड़ी बहू पर झुंझला रहे थे कि इसने मेरे कचहरी जाने का प्रश्न क्यों उठाया। मैं वहाँ जाकर क्या बना लेता, हाकिम की कलम तो पकड़ नहीं लेता, न उससे कुछ विनय-प्रार्थना ही कर सकता था। और फिर जब कभी न गया तो अब क्यों जाऊँ? जिसने काँटे बोये हैं वह उनके फल खायगा। इस फिक्र मैं कहाँ तक जान दूं?

वह इसी खिन्नावस्था में बैठे थे कि ज्ञानशंकर का दूसरा पत्र पहुँचा। उन्होंने संपूर्ण दीवानखाना लेने का निश्चय किया था। प्रभाशंकर ने सोचा मेरी नम्रता उसके क्रोध को शान्त कर देगी। उस आशा के प्रतिकूल जब यह प्रस्ताव सामने आया तो उनका चित्त अस्थिर हो गया। पत्र के निश्चयात्मक शब्दों ने उन्हें संज्ञा-हीन कर दिया। बौखला गये। क्रोध की जगह उनके हृदय में एक विवशता का संचार हुआ। क्रोध प्रत्याघात की सामर्थ्य का द्योतक है। उनमें यह शक्ति निर्जीव हो गयी थी। उस प्रस्ताव की भयंकर मूर्ति ने संग्राम की कल्पना तक मिटा दी। उस बालक की-सी दशा हो गयी जो हाथी को सामने देख कर मारे भय के रोने लगे, उसे भागने तक की सुध न रहे। उनका समस्त जीवन भ्रातृ-प्रेम की सुखद छाया में व्यतीत हुआ था। वैमनस्य और विरोध की यह ज्वाला-सम धूप असह्य हो गयी। एक दीन प्रार्थी की भाँति ज्ञानशंकर के पास गये और करुण स्वर में बोले, ज्ञानू, ईश्वर के लिए इतनी बेमुरौवती न करो। मेरी वृद्धावस्था पर दया करो। मेरी आत्मा पर ऐसा निर्दय आघात न करो। तुम सारा मकान ले लो, मेरे बाल-बच्चों के लिए जहाँ चाहो थोड़ा-सा स्थान दे दो, मैं उसी में अपनी निर्वाह कर लूंगा। मेरे-जीवन भर इस प्रकार चलने दो। जब मर जाऊँ तो जो इच्छा हो करना। एक थाली में न खाओ, एक घर में तो रहो, इतना सम्बन्ध तो बनाये रखो। मुझे दीवानखाने की जरूरत नहीं है। भला सोचो तो तुम दीवानखाने में जा कर रहोगे तो विरादरी के लोग क्या कहेंगे? नगरवाले क्या कहेंगे? सब कुछ हो गया है, पर अभी तक तुम्हारी कुल की मर्यादा बनी हुई है। हम दोनों भाई नगर में राम-लसन की जोड़ी कहलाते थे। हमारे प्रेम और एकता की मारे नगर में उपमा दी जाती थी।