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प्रेमाश्रम


देहातों में निकल पड़ते है और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राममंडल को उज्ज्वल कर देते है। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पंतग का उद्भव होता है, उसके अंत में तामसिक कीट और पंतग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते है।

इसमे संदेह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित हो कर होते है। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्याय-प्रार्थी के द्वार तक पहुंचना, प्रजा के दुखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसंतकाल से भी अधिक प्राण पोषक होते, लोग वीणा-पखावज से, ढोलमजीरे से उनका अभिवादन करते। किन्तु जिस भांति प्रकाश की रश्मियां पानी मे वक्रगामी हो जाती है, उसी भांति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवी दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है। अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भांति इस सुख काल के दिन गिना करते है। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोटे पर होता है या किसी दीन किसान की गर्दन पर। जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मास-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों को यहाँ केवल जिला और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते है, खाते है, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते है। घी से भरे हुए कनस्टर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी, घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती है। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते है, क्योंकि अब दुख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनको तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनद उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बडे संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है, दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।

अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुई थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बात कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पत्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अंत में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।

दुखरन बोले, आजकल रात को मटर में सियार और हरिन या उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।

कादिर-अब की ठंड पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहरे लपेटे पटा रहता हूँ। पुआल न हो गया होता तो रात