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प्रेमाश्रम

सामने हँस-हँस कर उनसे बातें करती थी, कभी उनसे अकेले भेद हो जाती तो उसे कोई बात ही न सूझती थी। अब वह अवस्था न थी। उसकी बात अब एकांत की खोज में रहती। विद्या की उपस्थिति उन दोनों को मौन बना देती थी। अब वह केवल वैज्ञानिक तथा धार्मिक चर्चाओं पर आबद्ध न होते। बहुधा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा किया करते और कभी-कभी ऐसे मार्मिक प्रसंगों का सामना करना पड़ता कि गायत्री लज्जा से सिर झुका लेती।

एक दिन सध्या समय गायत्री बगीचे में आराम कुर्सी पर लेटी हुई एक पत्र पढ़ रही थी, जो अभी डाक से आया था। यद्यपि लू का चलना बंद हो गया था, पर गर्मी के मारे बुरा हाल था। प्रत्येक वस्तु से ज्वाला-सीं निकल रही थी। वह पत्र को उठाती थी और फिर गर्मी से विकल हो कर रख देती थी। अंत में उसने एक परिचारिका को पंखा झलने के लिए बुलाया और अत्र पत्र को पढ़ने लगी। उसके मुख्तार-आम ने लिखा था, सरकार यहाँ जल्द आयें। यहाँ कई ऐसे मामले आ पड़े है जो आपकी अनुमति के बिना तै नहीं हो सकते। हरिहरपुर के इलाके में विलकुल वर्षा नहीं हुई यह आपको ज्ञात ही है। अब वहाँ के असामियों से लगान वसूल करना अत्यत कठिन हो रहा है। वह सोलह आने छूट की प्रार्थना करते हैं। मैंने जिलाधीश से इस विषय मे अनुरोध किया, पर उसका कुछ फल न हुआ। वह अवश्य छूट कर देंगे। यदि आप आ कर स्वयं जिलाधीश से मिलें तो शायद सफलता हो। यदि श्रीमान् राय साहब यहाँ पधारने का कष्ट उठायें तो निश्चय ही उनका प्रभाव कठिन को सुगम कर दे। असामियों के इस आंदोलन से हलचल मची हुई है। शंका है कि छूट न हुई तो उत्पात होने लगेगा। इसलिए आपका जिलाधीश से साक्षात् करना परमावश्यक है।

गायत्री सोचने लगी, यह जमींदारी क्या है, जी का जजाल है। महीने आध महीने के लिए भी कही जाये तो हाय-हाय-सी होने लगती है। असामियों मे यह घुन न जाने कैसे समा गयी कि जहाँ देखो वही उपद्रव करने पर तत्पर दिखाई देते हैं। सरकार को इन पर कही हाथ रखना चाहिए। जरा भी शह मिली और यह काबू से बाहर हुए। अगर इस इलाके में असामियों की छूट हो गयी तो मेरा २०-२५ हजार का नुकसान हो जायगा। इसी तरह और इलाके में भी उपद्रव के डर से छूट हो जाय तो मैं तो कहीं की न रहूँ। कुछ वसूल न होगा तो मैरा खर्च कैसे चलेगा? माना कि मुझे उस इलाके की मालगुजारी न देनी पड़ेगी, पर और भी तो कितने ही रुपये पृथक्-पृथक नाम से देने पड़ते हैं, वह तो देने ही पड़ेगें। वह किस के घर से आयेंगे? छूट भी हो जाय, मगर लूंगी असामियों से ही।

पर मेरा जी वहाँ कैसे लगेगा। यह बातें वहाँ कहाँ सुनने को मिलेंगी, अकेले पड़े-पड़े जी उकताया करेगा। जब तक ज्ञानशंकर यह-रहेंगे तब तक तो मैं गोरखपुर जाती नहीं। हाँ, जब वह चले जायेंगे तो मजबूरी है। नुकसान ही न होगा। बला से। जीवन के दिन आनन्द से वो कट रहे हैं; धर्म और ज्ञान की चर्चा सुनने में आती है। कल बाबू साहब मुझसे चिढ़ गये होंगे, लेकिन मेरा मन तो अब भी स्वीकार नहीं करता