पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८२
प्रेमाश्रम

नहीं लगा। अभी थोड़ी ही रात गयी है क्या? बाबू जी ध्रुपद अलाप रहे है।

विद्या--बारह तो कब के बज चुके, पर उन्हें किसी के मरने-जीने की क्या चिंता? उन्हें तो अपने राग-रंग से मतलब है। महरी ने जा कर तुम्हारा हाल कहा तो एक आदमी को डाक्टर के यहाँ दौड़ा दिया और फिर गाने लगे।

गायत्री—यह तो उनकी पुरानी आदत हैं, कोई नयी बात थोड़े ही है। रम्मन बाबू का यहाँ बुरा हाल हो रहा था, और वह डिनर में गये हुए थे। जब दूसरे दिन मैंने बातों-बातों में इसकी चर्चा की तो बोले, मैं वचन दे चुका था और जाना मेरा कर्तव्य था। मैं अपने व्यक्तिगत विषयों को सार्वजनिक जीवन से बिलकुल पृथक रखना चाहता हूँ।

विद्या-उस साल जब अकाल पड़ा और प्लेग भी फैला, तब हम लोग इलाके पर गये। तुम गोरखपुर थी। उन दिनों बाबू जी की निर्दयता देख कर मेरे रोये खड़े हो जाते थे। असामियों से रुपये वसूल न होते और हमारे यहाँ नित्य नाच-रंग होता रहता था। बाबू जी को उड़ाने के लिए रुपये न मिलते तो वह चिढ़ कर असामियो पर गुस्सा उतारते। सौ-सौ मनुष्यों को एक पाँति में खड़ा करके हंटर से मारने लगते। बेचारे तड़प-तड़प कर रह जाते, पर उन्हें तनिक भी दया न आती थी। इसी मार-पीट ने इन्हें निर्दय बना दिया है। जीवन-मरण तो परमात्मा के हाथ है, लेकिन मैं इतना अवश्य कहूंगी कि भैया की अकाल मृत्यु इन्हीं दीनों की हाय का फल है।

गायत्री—तुम बाबू जी पर अन्याय करती हो। उनका कोई कसूर नहीं। आखिर रुपये कैसे वसूल होते? निर्दयता अच्छी बात नहीं, किंतु जब इसके बिना काम ही न चले तो क्या किया जाय? तुम्हारे जीजा कैसे सज्जन थे, द्वार पर से किसी भिक्षुक को निराश न लौटने देते। सत्कार्यों में हजारों रुपये खर्च कर डालते थे। कोई ऐसा दिन न जाता कि सौ-पचास साधुओं को भोजन न कराने हो। हजारों रुपये तो चंदे में दे डालते थे। लेकिन उन्हें भी असामियों पर सख्ती करनी पड़ती थी। मैंने स्वयं उन्हें असामियों की मुश्के कम के पिटवाते देखा है। जब कोई और उपाय न सूझता तो उनके घरों में आग लगवा देते थे और अब मुझे भी वहीं करना पड़ता है। उस समय मैं समझती थी कि यह व्यर्थ इतना जुल्म करते हैं। उन्हें समझाया करती थी, पर जब अपने माथे पड़ गयी तो अनुभव हुआ कि यह नीच बिना मार खाये रुपये नहीं देते। घर में रुपये रखे रहते हैं, पर जब तक दो-चार लात-घूसे न ख़ा ले, या गालियाँ न सुन ले, देने का नाम नहीं लेते। यह उनकी आदत है।

विद्या-मैं यह न मानूँगी। किसी को मार खाने की आदत नहीं हुआ करती।

गायत्री-लेकिन किसी को मारने की भी आदत नहीं होती। यह सम्बन्ध ही ऐसा है कि एक ओर तो प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर जमींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरकुश बना देता है।

विद्या ने इसका कुछ जवाब न दिया। दोनों बहने एक ही पलंग पर लेटी। गायत्री के मन में कई बार इच्छा हुई कि आज की घटना को विद्या से बयान कर ददूँ। उसके