पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
गृह-दाह

भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। इर्ष्या साम्य-भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कहीं ऊँचा, कहीं भाग्यशाली समझता। उसमें ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था!

घृणा से घृणा उत्पन्न होती है; प्रेम से प्रेम। ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था! कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद-विवाद कर बैठता। कहता, भैया की अचकन फट गई है; आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देतीं? माँ उत्तर देती—उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा फिरेगा। ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था, कि अपने जेब-ख़र्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे; पर सत्यप्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शान्तिमय आनन्द का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती। एक क्षण के लिए उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठती।

एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने पूछा—तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते? क्या सोच रखा है, कि मैंने तुम्हारी ज़िंदगी-भर का ठेका ले रखा है?

सत्य॰—मेरे उपर जुर्माने और फीस के कई रुपए हो गये हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।

देव॰—फीस क्यों बाकी है? तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न?

सत्य॰—आये-दिन चंदे लगा करते हैं। फ़ीस के रुपए चंदे में दे दिये।

देव॰—और जुर्माना क्यों हुआ?

सत्य॰—फ़ीस न देने के कारण।

देव॰—तुमने चंदा क्यों दिया?