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प्रेम-द्वादशी

सत्य॰—ज्ञानू ने चन्दा दिया, तो मैंने भी दिया।

देव॰—तुम ज्ञानू से जलते हो?

सत्य॰—मैं ज्ञानू से क्यों जलने लगा? यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है।

देव॰—क्यों, यह कहते शर्म आती है?

सत्य॰—जी हाँ, आपकी बदनामी होगी।

देव॰—अच्छा तो आप मेरी मान-रक्षा करते हैं। यह क्यों नहीं कहते, कि पढ़ना अब मंज़ूर नहीं है। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हें एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ; ऊपर से तुम्हारे ख़र्च के लिए भी प्रतिमास कुछ दूँ। ज्ञानबाबू तुमसे कितना छोटा है; लेकिन तुमसे एक ही दफ़ा नीचा है। तुम इस साल ज़रूर ही फ़ेल होगे; वह ज़रूर ही पास होगा। अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी न?

सत्य॰—विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देव॰—तुम्हारे भाग्य में क्या है?

सत्य॰—भीख माँगना।

देव॰—तो फिर भीख ही माँगो। मेरे घर से निकल जाओ। देवप्रिया भी आ गई। बोली—शरमाता तो नहीं और बातों का जवाब देता है।

सत्य॰—जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे ही बचपन में अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया—ये जली-कटी बातें अब मुझसे न सही जायँगी। मैं ख़ून का घूट पी-पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश—बेहया है। कल से इसका नाम कटवा दूँगा। भीख माँगनी है, तो भीख ही माँगे।

(५)

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब सोलह साल की हो गई थी। इतनी बातें सुनने के बाद