सत्य॰—मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा।
यह कहकर उसने फिर भाई को गले से लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था!
(६)
सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस की मात्रा अधिक होती है। वे हवा के किले बना सकते हैं—धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही उसने निश्चय कर लिया था, कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बेग में लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहरों में जीविका का प्रश्न कठिन भी है, और सरल भी। सरल है उनके लिए, जो हाथ से काम कर सकते हैं, कठिन है उनके लिये जो क़लम से काम करते हैं। सत्यप्रकाश मज़दूरी करना नीच काम समझता था। उसने धर्मशाला में असबाब रखा, बाद को शहर के मुख्य-मुख्य स्थानों का निरीक्षण कर एक डाक घर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया, और अपढ़ मज़दूरों की चिट्ठियाँ, मनीआर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा। पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे न मिले, कि पेट-भर भोजन करता; लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी। वह मज़दूरों से इतने विन्य के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता, कि बस, वे पत्र को सुनकर बहुत प्रसन्न होते। अशिक्षित लोग एक ही बात को दो-दो तीन-तीन बार लिखाते हैं। उनकी दशा ठीक उन रोगियों की-सी होती है, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तान्त कहते नहीं थकते। सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप देकर मज़दूरों को मुग्ध कर देता था। एक संतुष्ट होकर जाता, तो अपने कई अन्य भाइयों को खोज लाता। एक ही महीने में उसे एक रुपया रोज़ मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकलकर शहर से बाहर पाँच रुपए महीने पर एक छोटी-सी कोठरी ले ली एक वक़्त बनाता, दोनों वक़्त खाता। बर्तन अपने हाथों से धोता। ज़मीन