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सत्याग्रह

उसे घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ-पाँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्तस्ना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ-पाँव हो गये थे, उस बन्धन में क्यों रहता! आत्माभिमान आशा की भाँति चिरंजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे; दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बग़ल में दबाई; एक छोटा-सा बेग हाथ में लिया और चाहता था, कि चुपके से बैठके से निकल जाय, कि ज्ञानू आ गया, और उसे जाने को तैयार देख बोला—कहाँ जाते हो, भैया?

सत्य॰—जाता हूँ, कहीं नौकरी करूँगा।

ज्ञानू—मैं जाकर अम्मा से कहे देता हूँ।

सत्य॰—तो फिर मैं तुम से भी छिपाकर चला जाऊँगा।

ज्ञानू–क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी ज़रा भी मुहब्बत नहीं?

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा—तुम्हे छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता; लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं है, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा, और पेट पालता रहूँगा; किस लायक हूँ?

ज्ञानू—तुमसे अम्मा क्यों इतना चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती है!

सत्य॰—मेरे नसीब खोटे हैं और क्या।

ज्ञानू—तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते?

सत्य॰—लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ? जब कोई परवा नहीं करता, तो मैं भी सोचता हूँ—उँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!

ज्ञानू—मुझे भूल तो नहीं जाओगे? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।

सत्य॰—तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूँगा।

ज्ञानू—(रोते-रोते) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है!