पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२०
प्रेम-द्वादशी

(३)

उन्हीं दिनों कैलास नईम से मिलने आया। दोनो मित्र बड़े तपाक से गले मिले। नईम ने बातों-बातों में यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया, और कैलास पर अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध करना चाहा।

कैलास ने कहा—मेरे विचार में पाप सदैव पाप है, चाहे वह किसी आवरण में मंडित हो।

नईम—और मेरा विचार है कि अगर गुनाह से किसी की जान बचती हो, तो वह ऐन सवाब है। कुँअर साहब अभी नौ जवान आदमी हैं। बहुत ही होनहार, बुद्धिमान्, उदार और सहृदय हैं। आप उनसे मिलें तो खुश हो जायँ। उनका स्वभाव अत्यन्त विनम्र है। मैं, जो यथार्थ में दुष्ट प्रकृति का मनुष्य था, बरबस कुँअर साहबको दिक किया करता था। यहाँ तक कि एक मोटरकार के लिए इसने रुपए न स्वीकार किये, न सिफ़ारिश की। मैं नहीं कहता, कि कुँअर साहब का यह कार्य स्तुत्य है; लेकिन बहस यह है, कि उनको अपराधी सिद्ध करके उन्हें कालेपानी की हवा खिलाई जाय; या निरपराध सिद्ध करके उनकी प्राणरक्षा की जाय? और भई, तुमसे तो कोई परदा नहीं है, पूरे बीस हज़ार की थैली है। बस, मुझे अपनी रिपोर्ट में यह लिख देना होगा, कि व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण यह दुर्घटना हुई है, राजा साहब का इससे कोई सम्पर्क नहीं। जो शहादतें मिल सकीं, उन्हें मैंने ग़ायब कर दिया। मुझे इस कार्य के लिए नियुक्त करने में अधिकारियों की एक मसलहत थी। कुँअर साहब हिन्दू हैं; इसलिए किसी हिन्दू-कर्मचारी को नियुक्त न करके जिलाधीश ने यह भार मेरे सिर पर रखा। यह सांप्रदायिक विरोध मुझे निस्पृह सिद्ध करने के लिए काफ़ी है। मैंने दो-चार अवसरों पर कुछ तो हाकिमों की प्रेरणा से और कुछ स्वेच्छा से मुसलमानों के साथ पक्षपात किया, जिससे यह मशहूर हो गया है, कि मैं हिन्दुओं का कट्टर दुश्मन हूँ। हिन्दू लोग मुझे पक्षपात का पुतला समझते हैं। यह भ्रम मुझे आक्षेपों से बचाने के लिए काफी है। बताओ, हूँ तकदीरवर कि नहीं?