यह थी, कि उसने नईम से एक राष्ट्रीय गुप्तचर की मुलाकात का भी उल्लेख किया, जिसने नईम को रुपए लेते देखा था। अंत में गवर्नमेंट को भी चेलेञ्ज दिया, कि जो उसमें साहस हो, तो वह मेरे प्रमाणों को झूठा साबित कर दे। इतना ही नहीं, उसने वह वार्तालाप भी अक्षरशः प्रकाशित कर दिया, जो उसके और नईम के बीच हुआ था। रानी का नईम के पास जाना, उसके पैरों पर गिरना, कुँअर साहब का नईम के पास नाना प्रकार के तोहफे लेकर आना, इन सभी प्रसङ्गों ने उसके लेखों में एक जासूसी उपन्यास का मज़ा पैदा कर दिया।
इन लेखों ने राजनीतिक क्षेत्र में हलचल मचा दी। पत्र-सम्पादकों को अधिकारियों पर निशाने लगाने के ऐसे अवसर बड़े सौभाग्य से मिलते हैं। जगह-जगह शासन की इस करतूत की निन्दा करने के लिए सभाएँ होने लगीं। कई सदस्यों ने व्यस्थापक-सभा में इस विषय पर प्रश्न करने की घोषणा की। शासकों को कभी ऐसी मुँह की न खानी पड़ी थी। आखिर उन्हें अपनी मान रक्षा के लिए इसके सिवा और कोई उपाय न सूझा, कि वे मिरज़ा नईम को कैलास पर मान-हानि का अभि योग चलाने के लिए विवश करें।
(५)
कैलास पर इस्तग़ासा दायर हुआ। मिरज़ा नईम की ओर से सरकार पैरवी करती थी। कैलास स्वयं अपनी पैरवी कर रहा था। न्याय के प्रमुख संरक्षकों (वकील-बैरिस्टरों) ने किसी अज्ञात कारण से उसकी पैरवी करना अस्वीकार किया। न्यायाधीश को हारकर कैलास को कानून की सनद न रखते हुए भी अपने मुकदमे की पैरवी करने की आज्ञा देनी पड़ी। महीनों अभियोग चलता रहा। जनता में सनसनी फैल गई। रोज़ हज़ारों आदमी अदालत में एकत्र होते थे। बाज़ारों में अभियोग की रिपोर्ट पढ़ने के लिये समाचार-पत्रों की लूट होती थी। चतुर पाठक पढ़े हुये पत्रों से घड़ी रात जाते-जाते दुगुने पैसे खड़े कर लेते थे; क्योंकि उस समय तक पत्र-विक्रेताओं के पास कोई पत्र न बचने पाता था। जिन बातों का ज्ञान पहले गिने-गिनाये पत्र-ग्राहकों को था, उन पर अब जनता