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प्रेम-द्वादशी

की टिप्पणियाँ होने लगीं। नईम की मिट्टी कभी इतनी खराब न हुई थी; गली-गली, घर-घर, उसी की चर्चा थी। जनता का क्रोध उसी पर केन्द्रित हो गया था। वह दिन भी स्मरणीय रहेगा, जब दोनो सच्चे, एक दूसरे पर प्राण देनेवाले मित्र अदालत में आमने-सामने खड़े हुए, और कैलास ने मिरज़ा नईम से जिरह करनी शुरू की। कैलास को ऐसा मानसिक कष्ट हो रहा था, मानो वह नईम की गरदन पर तलवार चलाने जा रहा है। और नईम के लिए तो वह अग्नि-परीक्षा थी। दोनो के मुख उदास थे; एक का आत्मग्लानि से, दूसरे का भय से। नईम प्रसन्न बनने की चेष्टा करता था, कभी-कभी सूखी हँसी भी हँसता था, लेकिन कैलास—आह, उस ग़रीब के दिल पर जो गुज़र रही थी, उसे कौन जान सकता है।

कैलास ने पूछा—आप और हम साथ पढ़ते थे, इसे आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—हम दोनो में इतनी घनिष्ठता थी, कि हम आपस में कोई परदा न रखते थे, इसे आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—जिन दिनों आप इस मामले की जाँच कर रहे थे, मैं आपसे मिलने गया था, इसे भी आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—क्या उस समय आपने मुझसे यह नहीं कहा था, कि कुँअर साहब की प्रेरणा से यह हत्या हुई है?

नईम—कदापि नहीं।

कैलास—आपके मुख से यह शब्द नहीं निकले थे, कि बीस हज़ार की थैलो है?

नईम ज़रा भी न झिझका, ज़रा भी-संकुचित न हुआ। उसको ज़बान में लेश-मात्र भी लुकनत न हुई, वाणी में ज़रा भी थर-थराहट न आई। उसके मुख पर अशान्ति, अस्थिरता या असमंजस का कोई भी