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प्रेम-द्वादशी

सिद्ध कर दिया हो; पर जनता की दृष्टि में तो और भी गिरा दिया। कैलास के पास सहानुभूति के पत्र और तार आने लगे। पत्रों में उसकी निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की प्रशंसा होने लगी। जगह-जगह सभायें और जलसे हुए और न्यायालय के निश्चय पर असंतोष प्रकट किया गया; किन्तु सूखे बादलों से पृथ्वी की तृप्ति तो नहीं होती? रुपए कहाँ से आवें और वह भी एक दम से बीस हज़ार! आदर्श-पालन का यही मूल्य है; राष्ट्र-सेवा महँगा सौदा है। बीस हज़ार! इतने रुपए तो कैलास ने शायद स्वप्न में देखे भी न हों और अब देने पड़ेंगे। कहाँ से देगा? इतने रुपयों के सूद से ही वह जीविका के चिन्ता से मुक्त हो सकता था; उसे अपने पत्र में अपनी विपत्ति का रोना रोकर चंदा एकत्र करने से घृणा थी। मैंने अपने ग्राहकों की अनुमति लेकर इस शेर से मोर्चा नहीं लिया था। मैनेजर की वकालत करने के लिए किसी ने मेरी गरदन नहीं दबाई थी। मैंने अपना कर्तव्य समझ कर ही शासकों को चुनौती दी। जिस काम के लिए मैं, अकेला मैं ज़िम्मेदार हूँ, उसका भार अपने ग्राहकों पर क्यों डालूँ! यह अन्याय है। सम्भव है, जनता में आन्दोलन करने से दो-चार हज़ार रुपए हाथ आ जायँ; लेकिन यह सम्पादकीय आदर्श के विरुद्ध है। इससे मेरी शान बट्टा में लगता है। दूसरों को यह कहने का क्यों अवसर दूँ, कि और के मत्थे फुलौड़ियाँ खाईं, तो क्या बड़ा जग जीत लिया! जब जानते, कि अपने बल-बूते पर गरजते! निर्भीक आलोचना का सेहरा तो हमारे सिर बँधा; उसका मूल्य दूसरों से क्यों वसूल करूँ? मेरा पत्र बन्द हो जाय, मैं पकड़ कर क़ैद किया जाऊँ, मेरा मकान कुर्क कर लिया जाय, बरतन-भाँड़े नीलाम हो जायँ, यह सब मुझे मंज़ूर है। जो कुछ सिर पड़ेगी, भुगत लूँगा; पर किसी के सामने हाथ न फैलाऊँगा।

सूर्योदय का समय था। पूर्व दिशा से प्रकाश की छटा ऐसी दौड़ी चली आती थी, जैसे आँखों में आँसुओं की धारा। ठंडी हवा कलेजे पर यों लगती थी, जैसे किसी के करुण क्रन्दन की ध्वनि। सामने का मैदान दुःखी हृदय की भाँति ज्योति के बाणों से बिंध रहा था, घर में वह निस्त-