सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३२
प्रेम-द्वादशी


कैलास के कौतूहल की कोई सीमा न रही। सोचने लगा, मेरे पास ऐसी कौन-सी बहुमूल्य वस्तु है? कहीं मुझसे मुसलमान होने को तो न कहेगा। यही धर्म एक चीज़ है, जिसका मूल्य एक से लेकर असंख्य रखा जा सकता है। ज़रा देखूँ, तो हज़रत क्या कहते हैं?

उसने पूछा—क्या चीज़?

नईम—मिसेज़ कैलास से एक मिनट तक एकान्त में बात-चीत करने की आज्ञा!

कैलास ने नईम के सिर पर एक चपत जमाकर कहा—फिर वही शरारत! सैकड़ों बार तो देख चुके हो, ऐसी कौन-सी इन्द्र की अप्सरा है?

नईम—वह कुछ भी हो, मामला करते हो, तो करो; मगर याद रखना, एकान्त की शर्त है।

कैलास—मंज़ूर है, मगर फिर जो डिग्री के रुपए माँगे गये, तो नोच ही खाऊँगा।

नईम—हाँ, मंज़ूर है।

कैलास—(धीरे से) मगर यार, नाजुक-मिज़ाज स्त्री है; कोई बेहूदा मज़ाक न कर बैठना।

नईम—जी, इन बातों में मुझे आपके उपदेश की ज़रूरत नहीं। मुझे उनके कमरे में ले तो चलिये।

कैलास—सिर नीचा किये रहना।

नईम—अजी आँखों में पट्टी बाँध दो।

कैलास के घर में परदा न था। उमा चिन्ता-मग्न बैठी हुई थी। सहसा नईम और कैलास को देखकर चौंक पड़ी। बोली—आइये मिरज़ाजी, अब की तो बहुत दिनों में याद किया।

कैलास नईम को वहीं छोड़कर कमरे के बाहर निकल आया; लेकिन परदे की बाड़ से छिपकर देखने लगा, कि इनमें क्या बातें होती हैं। उसे कुछ बुरा ख़याल न था, केवल कौतूहल था।

नईम—हम सरकारी आदमियों को इतनी फुरसत कहाँ? डिक्री के रुपए वसूल करने थे; इसलिए चला आया हूँ।