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डिक्री के रुपये


उमा कहाँ तो मुसकरा रही थी, कहाँ रुपयों का नाम सुनते ही उसका चेहरा फ़क़ हो गया। गंभीर स्वर में बोली—हम लोग स्वयं इसी चिन्ता में पड़े हुए हैं। कहीं रुपए मिलने की आशा नहीं है; और उन्हें जनता से अपील करते संकोच होता है।

नईम—अजी, आप कहती क्या हैं? मैंने तो सब रुपए पाई-पाई वसूल कर लिये।

उमा ने चकित होकर कहा—सच! उनके पास रुपए कहाँ थे?

नईम—उनकी हमेशा से यही आदत है। आपसे कह रखा होगा, मेरे पास कौड़ी नहीं है। लेकिन मैंने चुटकियों में वसूल कर लिया। आप उठिये, खाने का इन्तज़ाम कीजिये!

उमा—रुपए भला क्या दिये होंगे। मुझे एतबार नहीं आता।

नईम—आप सरल हैं, और वह, एक ही काइयाँ। उसे तो मैं ही खूब जानता हूँ। अपनी दरिद्रता के दुखड़े गा-गाकर आपको चकमा दिया करता होगा।

कैलास मुसकराते हुए कमरे में आये, और बोले—अच्छा अब निकलिये बाहर! यहाँ भी अपनी शैतानी से बाज़ नहीं आये?

नईम–रुपयों की रसीद तो लिख दूँ!

उमा—क्या तुमने रुपए दे दिये? कहाँ मिले?

कैलास—फिर कभी बतला दूँगा।—उठिये हज़रत!

उमा—बताते क्यों नहीं, कहाँ मिले? मिरज़ाजी से कौन-सा परदा है?

कैलास-नईम, तुम उमा के सामने मेरी तौहीन करना चाहते हो?

नईम—तुमने सारी दुनिया के सामने मेरी तौहीन नहीं की?

कैलास—तुम्हारी तौहीन की, तो उसके लिए बीस हज़ार रुपए नहीं देने पड़े!

नईम—मैं भी उसी टकसाल के रुपए दे दूँगा। उमा, मैं रुपए पा गया। इन बेचारे का परदा ढका रहने दो।