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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१४२

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प्रेम-द्वादशी

बाँस और किसी से सरकंडे। दीवार की उठवाई देनी पड़ी। वह भी नकद नहीं, भेड़ों के बच्चों के रूप में। लक्ष्मी का यह प्रताप है। सारा काम बेगार में हो गया। मुफ़्त में अच्छा-खासा घर तैयार हो गया। गृहप्रवेश के उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं।

इधर झींगुर दिन-भर मज़दूरी करता, तो कहीं आधे पेट अन्न मिलता। बुद्धू के घर कंचन बरस रहा था। झींगुर जलता था, तो क्या बुरा करता था? यह अन्याय किससे सहा जायगा?

एक दिन वह टहलता हुआ चमारों के टोले की तरफ चला गया। हरिहर को पुकारा। हरिहर ने आकर राम-राम की, और चिलम भरी। दोनो पीने लगे। यह चमारों का मुखिया बड़ा दुष्ट आदमी था। सब किसान इससे थर-थर काँपते थे।

झींगुर ने चिलम पीते-पीते कहा—आजकल फाग-वाग नहीं होता क्या? सुनाई नहीं देता।

हरिहर–फाग क्या हो, पेट के धंधे से छुट्टी ही नहीं मिलती। कहो, तुम्हारी आजकल कैसी निभती है?

झींगुर—क्या निभती है। नकटा जिया बुरे हवाल! दिन-भर कल में मजदूरी करते हैं, तो चूल्हा जलता है। चाँदी तो आजकल बुद्धू की है। रखने का ठौर नहीं मिलता। नया घर बना, भेड़ें और ली हैं। अब गृहीपरवेस की धूम है। सातों गाँवों में सुपारी जायगी।

हरिहर—लक्ष्मी मैया आती हैं, तो आदमी की आँखों में सील आ जाता है; पर उसको देखो, धरती पर पैर नहीं रखता। बोलता है, तो ऐंठकर बोलता है।

झींगुर—क्यों न ऐंठे, इस गाँव में कौन है उसकी टक्कर का? पर यार, यह अनीति तो नहीं देखी जाती। भगवान् दे, तो सिर झुकाकर चलना चाहिये। यह नहीं, कि अपने बराबर किसी को समझे ही नहीं। उसकी डींग सुनता हूँ, तो बदन में आग लग जाती है। कल का बाग़ी आज का सेठ। चला है हमी से अकड़ने! अभी कल लँगोटी लगाये खेतों में कौए हँकाया करता था, आज उसका आ सामान में दिया जलता है।