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प्रेम-द्वादशी

एक ही हत्यारे होते हैं । इसी हरिहर ने मेरी दो गउएँ मार डाली । न जाने क्या खिला देता है । तब से कान पकड़े, कि अब गाय-भैंस पालूँगा ; लेकिन तुम्हारी एक ही बछिया है, उसका कोई क्या करेगा । जब चाहो पहुँचा दो।

यह कहकर बुद्धू अपने गृहोत्सव का सामान उसे दिखाने लगा। घी, शकर, मैदा, तरकारी सब मँगा रखा था। केवल 'सत्यनारायण की कथा' को देर थी। झींगुर की आँखें खुल गई। ऐसी तैयारी न उसने स्वयं कभी को थी, और न किसी को करते देखी थी। मज़दूरी करके घर लौटा, तो सबसे पहला काम जो उसने किया, वह अपनी बछिया को बुद्धू के घर पहुँचाना था । उसी रात को बुद्धू के यहाँ 'सत्यनारायण की कथा' हुई । ब्रह्मभोज भी किया गया। सारी रात विनों की आगत- स्वागत करते गुज़री । भेड़ों के मुण्ड में जाने का अवकाश ही न मिला। प्रातःकाल भोजन करके उठा ही था ( क्योंकि रात का भोजन सवेरे मिला.), कि एक आदमी ने आकर खबर दी-बुद्ध तुम यहाँ बैठे हो, उधर भेड़ों में बछिया मरी पड़ी है । भले अादमी, उसकी पगहिया भी नहीं खोली थी ?

बुद्ध ने सुना, और मानो ठोकर लग गई । झींगुर भी भोजन करके वहीं बैठा था । बोला-हाय मेरी बछिया ! चलो, जरा देखू तो, मैंने ' तो पगहिया नहीं लगाई थी। उसे भेड़ों में पहुँचाकर अपने घर चला गया। तुमने यह पगहिया कब लगा दी ?

बुद्ध--भगवान् जानें, जो मैंने उसकी पगहिया देखी भी हो। मैं तो तब से भेड़ों में गया ही नहीं।

झींगुर--जाते न तो पगहिया कौन लगा देता ? गये होगे, याद न आती होगी।

एक ब्राह्मण--मरी तो भेड़ों में ही न ? दुनिया तो यही कहेगी, कि बुद्ध की असावधानी से उसकी मृत्यु हुई, पगहिया किसी की हो ।

हरिहर--मैंने कल साँझ को इन्हें भेड़ों में बछिया को बाँधते देखा था।