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प्रेम-द्वादशी

मालूम होती थी। ऐसा प्रतीत होता, मानो ये बातें उनके हृदय से नहीं, केवल मुख से निकलती हैं। उनके स्नेह और प्यार में हार्दिक भावों की जगह अलंकार ज्यादा होता था; किन्तु और भी अचम्भे की बात तो यह थी, कि अब मुझे बाबूजी पर वह पहले की-सी श्रद्धा न रही थी। अब उनकी सिर की पीड़ा से मेरे हृदय में पीड़ा न होती थी। मुझमें आत्म-गौरव का आविर्भाव होने लगा था। अब मैं अपना बनाव-शृङ्गार इसलिए करती थी, कि संसार में यह भी मेरा एक कर्त्तव्य है ; इसलिए नहीं, कि मैं किसी एक पुरुष की व्रतधारिणी हूँ। अब मुझे भी अपनी सुन्दरता पर गर्व होने लगा था । मैं अब किसी दूसरे के लिए नहीं, अपने लिये जीती थी । त्याग तथा सेवा का भाव मेरे हृदय से लुप्त होने लगा था।

मैं अब भी परदा करती थी ; परन्तु हृदय अपनी सुन्दरता की सरा- हना सुनने के लिए व्याकुल रहता था। एक दिन मिस्टर दास तथा और भी अनेक सभ्यगण बाबूजी के साथ बैठे हुए थे । मेरे और उनके बीच में केवल एक परदे की आड़ थी । बाबूजी मेरी इस झिझक से बहुत ही लजित थे । इसे वह अपनी सभ्यता में काला धब्बा समझते थे । कदाचित् वह दिखाना चाहते थे कि मेरी स्त्री इसलिए परदे में नहीं है, कि वह रूप तथा वस्त्राभूषणों में किसी से कम है ; बल्कि इसलिए, कि अभी उसे लज्जा आती है । वह मुझे किसी बहाने से बारम्बार परदे के निकट बुलाते, जिसमें उनके मित्र मेरी सुन्दरता और वस्त्राभूषण देख लें । अन्त में कुछ दिन बाद मेरी झिझक गायब हो गई । इलाहाबाद आने के पूरे दो वर्ष बाद मैं बाबूजी के साथ बिना परदे के सैर करने लगी। सैर के बाद टेनिस की नौबत आई । अन्त को मैंने क्लब में जाकर दम लिया। पहले यह टेनिस और क्लब मुझे तमाशा-सा मालूम होता था, मानो वे लोग व्यायाम के लिए नहीं ; बल्कि फैशन के लिए टेनिस खेलने आते थे। वे कभी न भूलते थे, कि हम टेनिस खेल रहे हैं । उनके प्रत्येक काम में, झुकने में, दौड़ने में, उथकने में एक कृत्रिमता होती थी, जिससे यह प्रतीत होता था कि इस खेल का प्रयोजन कसरत नहीं, केवल दिखावा है ।