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शांति

क्लब में इससे भी विचित्र अवस्या थी। वह पूरा स्वाँग था, भद्दा और बेजोड़ । लोग अँगरेज़ी के चुने हुए शब्दों का प्रयोग करते थे, जिनमें कोई सार न होता था, नकली हँसी हँसते थे, जिसका कोई अव- सर न होता था, स्त्रियों की वह फूहड़ निर्लज्जता और पुरुषों की वह भावशून्य स्त्री-पूजा मुझे तनिक भी न भाती थी। चारों ओर अँगरेज़ी चाल-दाल की एक हास्यजनक नक्कल थी; परन्तु क्रमशः मैं भी वही रंग पकड़ने और उन्हीं का अनुकरण करने लगी। अब मुझे अनुभव हुआ, कि इस प्रदर्शन-लोलुपता में कितनी शक्ति है । मैं अब नित्य नये शृङ्गार करती, नित्य नया रूप भरती, केवल इसलिए कि क्लब में सबकी आँखों में चुभ जाऊँ ! अब मुझे बाबूजी की सेवा-सत्कार से अधिक अपने बनाव- शृङ्गार की धुन रहती थी। यहाँ तक कि यह शौक एक नशा-सा बन गया । इतना ही नहीं, लोगों से अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर मुझे एक अभिमान-मिश्रित प्रानन्द का अनुभव होने लगा। मेरी लज्जाशीलता की सीमाएँ विस्तृत हो गई। वह दृष्टिपात, जो कभी मेरे शरीर के प्रत्येक रोएँ को खड़ा कर देता, और वह हास्य-कटाक्ष , जो कभी मुझे विष खा लेने को प्रस्तुत कर देता, उनसे अब मुझे एक उन्माद-पूर्ण हर्ष होता था ; परन्तु जब कभी मैं अपनी अवस्था पर आन्तरिक दृष्टि डालती, तो मुझे बड़ी घबराहट होती थी। यह नाव किस घाट लगेगी? कभी-कभी इरादा करती, कि क्लब न जाऊँगी ; परन्तु समय आते ही फिर तैयार हो जाती। मैं अपने वश में न थी। भेरी सत्कल्पनाएँ निर्बल हो गई थीं।

( ५ )

दो वर्ष और बीत गये, और अब बाबूजी के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन होने लगा। वह उदास और चिंतित रहने लगे। मुझसे बहुत कम बोलते । ऐसा जान पड़ता, कि इन्हें कठिन चिन्ता ने घेर रखा है, या कोई बीमारी हो गई है। मुँह बिलकुल सूखा रहता था। तनिक-तनिक-सी बात पर नौकरों से झल्लाने लगते, और बाहर बहुत कम जाते।