पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है! क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी?
जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे, कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया—
जुम्मन शेख! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि ख़ालाजान को माहवार ख़र्च दिया जाय। हमारा विचार है, कि ख़ाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है; कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्बानामा रद समझा जाय।
(५)
यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे, और गले पर छुरी फेरे! इसे समय का हेरफेर के सिवा और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा हो जाती है। यही कलयुग की दोस्ती है? अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता! यह हैजा-प्लेग आदि व्याधियाँ दुष्कर्मों के दण्ड हैं।
मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे—इसका नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया! दोस्ती दोस्ती की जगह है; किन्तु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली चाती।
इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखाई देते। इतना पुराना मित्रता रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही ज़मीन पर खड़ा था।
उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की