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पंच-परमेश्वर

मित्र थे। वह बात तो ताड़ गये! पूछा—क्यों चौधरी, तुम्हें कोई उज्र तो नहीं?

चौधरी ने निराश होकर कहा—नहीं, मुझे क्या उज्र होगा?

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अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं, तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-सम्पादक अपनी शान्ति-कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतन्त्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मन्त्रि-मण्डल पर आक्रमण करता है; परन्तु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मन्त्रि-मण्डल में सम्मिलित होता है। मण्डल के भवन में पग धरते ही उनकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्याय-परायण हो जाती है, इसका कारण उत्तरदायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दण्ड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिन्तित रहते हैं। वे उसे कुलकलंक समझते हैं; परन्तु थोड़े ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वही अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांत-चित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।

जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी ज़िम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश्य है—और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिये, मुझे सत्य से जौ-भर भी टल ना उचित नहीं!

पंचों ने दोनो पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किये। बहुत देर तक दोनो दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे, कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिये; परन्तु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे, कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दण्ड भी