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प्रेम-द्वादशी

अन्त में बूढ़े चौधरी गये, और मना के लाये। अब फिर वह पुरानी गाड़ी अड़ती, मचलती, हिलती चलने लगी।

( ३ )

पाँड़े के घर चूहों की तरह, चौधरी के घर में बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए मिट्टी के घोड़े और लकड़ी की नावें, काग़ज़ की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था, गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल न था, जिसे वे बीमारियों का घर न समझते हों , लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल अाकर्षण था, कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि वे सोते भी हों, तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन उस गाँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियों के ही, संख्याएँ और दिनों के नाम याद हो गये थे। गुरदीन बूढ़ा-सा मैला-कुचैला आदमी था; किन्तु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान-मंत्र से कम न था । उसकी आवाज़ सुनते ही उसके खोचे पर बालकों का ऐसा धावा होता, कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रण-स्थल से भागना पड़ता था । और जहाँ बच्चों के लिए मिठाइयाँ थीं, वहाँ गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थीं। माँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसे न रहने का बहाना करे ; पर गुरदीन चट-पट मिठाइयों का दोना बच्चों के हाथ में रख ही देता, और स्नेह-पूर्ण भाव से कहता-बहूजी पैसों की कुछ चिन्ता न करो, फिर मिल रहेंगे, कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं । नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है, उन्हीं के बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या ; ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना, कैसे ठनगन करता हूँ।

गुरदीन का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य-नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे 'नौ नगद सही, तेरह उधार नहीं' वाली कहावत अनुभव- सिद्ध ही क्यों न हो ; किंतु मिष्ठभाषो गुरदीन को कभी अपने इस व्यव- हार पर पछताने या उसमें संशोधन करने की ज़रूरत नहीं हुई ।