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प्रेम-द्वादशी

गया था, यह सोचते ही नेत्र लज्जा से झुक गये । बाबूजी की आन्तरिक अवस्था उनके मुखड़े ही से प्रकाशमान हो रही थी। स्वार्थ और विलास- लिप्सा के विचार मेरे हृदय से दूर हो गये थे। उनके बदले ये शब्द ज्वलंत अक्षरों में लिखे हुए नजर आये--तूने फैशन और वस्त्राभूषणों में अवश्य उन्नति की है, तुझमें अपने स्वत्वों का ज्ञान हो पाया है, तुझमें जीवन के सुख भोगने की योग्यता अधिक हो गई है, तू अब अधिक गर्विणी, दृढ़ हृदय और शिक्षा-सम्पन्न भी हो गई ; लेकिन तेरे आत्मिक-बल का विनाश हो गया ; क्योंकि तू अपने कर्तव्य को भूल गई ।

मैं दोनों हाथ जोड़कर बाबूजी के चरणों पर गिर पड़ी। कंठ रुध गया, एक शब्द भी मुँह से न निकला, अश्रु-धारा बह चली ! अब मैं फिर अपने घर पर आ गई हूँ। अम्माँजी अब मेरा अधिक सम्मान करती हैं, बाबूजी सन्तुष्ट देख पड़ते हैं। वह अब स्वयं प्रतिदिन सन्ध्या- वन्दन करते है।

मिसेज़ दास के पत्र कभी-कभी पाते हैं। वह इलाहाबादी सोसाइटी के नवीन समाचारों से भरे होते हैं। मिस्टर दास और मिस भाटिया के सम्बन्ध में कलुषित बातें उड़ रही हैं। मैं इन पत्रों का उत्तर तो दे देती हूँ ; परन्तु चाहती हूँ कि वह अब न पाते, तो अच्छा होता । वह मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं, जिन्हें मैं भूल जाना चाहती हूँ।

कल बाबूजी ने बहुत-सी पुरानी पोथियाँ अग्निदेव को अर्पण की। उनमें आसकर वाइल्ड की कई पुस्तकें थीं। वह अब अँगरेज़ी-पुस्तकें बहुत कम पढ़ते हैं। उन्हें कार्लाइल, रस्किन और एमरसन के सिवा और कोई पुस्तक पढ़ते मैं नहीं देखती। मुझे तो अपनी रामायण और महाभारत में फिर वही आनन्द प्राप्त होने लगा है। चरखा अब पहले से अधिक चलाती हूँ ; क्योंकि इस बीच में चरखे ने खूब प्रचार पा लिया है ।

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