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प्रेम-द्वादशी

रही थी। जैसे कोई लंका-बासी तिब्बत में आ गया हो, जहाँ के रस्म-रवाज और बातचीत का उसे ज्ञान न हो।

एकाएक उनकी दृष्टि घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके थे; परन्तु घड़ी अभी दोपहर की नींद में मग्न थी। तारीख की सूई ने दौड़ में समय को भी मात कर दिया था। वह जल्दी से उठे, कि घड़ी को ठीक कर दें, इतने में महारानी का कमरे में पदार्पण हुआ। साईंदास ने घड़ी को छोड़ा और महारानी के निकट जा बग़ल में खड़े हो गये। निश्चय न कर कर सके, कि हाथ मिलावें या झुककर सलाम करें। रानीजी ने स्वयं हाथ बढ़ाकर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया।

जब लोग कुर्सियों पर बैठ गये, तो रानी के प्राइवेट-सेक्रेटरी ने व्यवहार की बातचीत शुरू की। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के बाद उसने उन उन्नतियों का वर्णन किया, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा निकालने के लिए दस लाख रुपयों की आवश्यकता थी; परन्तु उन्होंने एक हिन्दुस्तानी बैंक से ही व्यवहार करना अच्छा समझा। अब यह निर्णय नेशनल बैंक के हाथ में था, कि वह इस अवसर से लाभ उठाना चाहता है; या नहीं?

बंगाली बाबू—हम रुपया दे सकता है; मगर काग़ज़-पत्तर देखे बिना कुछ नहीं कर सकता।

सेक्रेटरी—आप कोई ज़मानत चाहते हैं?

साईंदास उदारता से बोले–महाशय, ज़मानत के लिए आपकी ज़बान ही काफ़ी है।

बंगाली बाबू—आपके पास रियासत का कोई हिसाब-किताब है?

लाला साईंदास को अपने हेडक्लर्क का दुनियादारी का बर्ताव अच्छा न लगता था। वह इस समय उदारता के नशे में चूर थे। महारानी की सूरत ही पक्की ज़मानत थी। उनके सामने काग़ज़ और हिसाब का वर्णन करना बनियापन जान पड़ता था, जिससे अविश्वास की गंध आती है।