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प्रेम-द्वादशी

को औरों पर प्रकट करने का उन्हें साहस न हुआ; पर उन्हें यह आशा उस समय तक बनी रही, जब तक पार्सलवाला डाकिया वापस नहीं गया। अन्त में संध्या को बह बेचैनी की दशा में उठकर घर चले गये। अब खत या तार का इन्तज़ार था। दो-तीन बार झुँझलाकर उठे, डाट कर पत्र लिखूँ और साफ़-साफ़ कह दूँ कि लेन-देन के मामले में वादा पूरा न करना विश्वासघात है। एक दिन की देर भी बैंक के लिए घातक हो सकती है। इससे यह होगा, कि फिर कभी ऐसी शिकायत करने का अवसर न मिलेगा; परन्तु फिर कुछ सोचकर न लिखा।

शाम हो गई थी, कई मित्र आ गये। गपशप होने लगी। इतने में पोस्टमैन ने शाम की डाक दी। यों वह पहले अखबारों को खोला करते; पर आज चिठ्ठियाँ खोली; किन्तु बरहल का कोई ख़त न था। तब बेमन हो एक अँगरेजी अखबार खोला। पहले ही तार का शीर्षक देखकर उनका खून सर्द हो गया। लिखा था—

'कल शाम बो बरहल की महारानी जी का तीन दिन की बीमारी के बाद देहान्त हो गया!'

इसके आगे एक संक्षिप्त नोट में यह लिखा हुया था—बरहल की महारानी की अकाल मृत्यु केवल इस रियासत के लिए ही नहीं; किंतु समस्त प्रान्त के लिए एक शोक-जनक घटना है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य (वैद्यराज) अभी रोग की परख भी न कर पाये थे कि मृत्यु ने काम तमाम कर दिया। रानी जी को सदैव अपनी रियासत की उन्नति का ध्यान रहता था। उनके थोड़े-से राज्य-काल में ही उनसे रियासत को जो लाभ हुए हैं, वे चिरकाल तक स्मरण रहेंगे। यद्यपि यह मानी हुई बात थी, कि राज्य उनके बाद दूसरे के हाथ में जायगा, तथापि यह विचार कभी रानी साहब के कर्तव्य-पालन का बाधक नहीं बना। शास्त्रानुसार उन्हें रियासत की ज़मानत पर ऋण लेने का अधिकार न था; परन्तु प्रजा की भलाई के विचार से उन्हें कई बार इस नियम का उल्लंघन करना पड़ा। हमें विश्वास है, कि यदि वह कुछ दिन और जीवित रहतीं, तो रियासत को ऋण से मुक्त कर देतीं। उन्हें रात-दिन इसका ध्यान रहता था।