आवेंगे। अबकी उनका इरादा था, कि कुछ सजावट के सामान और मोल ले लें। अब तक बैंक में टेलीफोन नहीं था। उसका भी तखमीना मँगा लिया था। आशा की आभा चेहरे से झलक रही थी। बंगाली बाबू से हँसकर कहते थे—इस तारीख को मेरे हाथों में अदबदा के खुजली होने लगती है। आज भी हथेली खुजला रही है। कभी दफ्तरी से कहते—अरे मियाँ शगकत, ज़रा सगुन तो विचारो; सिर्फ सूद-ही सूद आ रहा है, या दक्तरवालों के लिए नज़राना-शुकराना भी? आशा का प्रभाव कदाचित् स्थान पर भी होता है। बैंक आज भी खिला ही दिखाई पड़ता था।
डाकिया ठीक समय पर आया। साईंदास ने लापरवाही से उसकी ओर देखा। उसने अपनी थैली से कई रजिस्टरी लिफाफे निकाले। साईंदास ने उन लिफ़ाफ़ों को उड़ती निगाह से देखा। बरहल का कोई लिफ़ाफ़ा न था; न बीमा, न मुहर, न वह लिखावट। कुछ निराशा-सी हुई। जी में पाया, डाकिये से पूछें, कोई और रजिस्टरी रह तो नहीं गई? पर रुक गये। दफ्तर के क्लर्कों के सामने इतना अधैर्य अनुचित था; किन्तु जब डाकिया चलने लगा, तब उनसे न रहा गया। पूछ ही बैठे—अरे भाई कोई बीमा-लिफ़ाफ़ा रह तो नहीं गया? आज उसे आना चाहिये था। डाकिए ने कहा—सरकार, भला ऐसी बात हो सकती है! और कहीं भूल-चूक चाहे हो भी जाय; पर आपके काम में कहीं भूल हो सकती है। साईंदास का चेहरा उतर गया, जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय। डाकिया चला गया, तो बंगाली बाबू से बोले—यह देर क्यों हुई? और तो कभी ऐसा न होता था!
बंगाली बाबू ने निष्ठुर भाव से उत्तर दिया—किसी कारण से देरी हो गया होगा। घबराने का कोई बात नहीं।
निराशा असंभव को सम्भव बना देती है। साईंदास को इस समय यह ख्याल हुआ, कि कदाचित् पारसल से रुपये आते हों। हो सकता है, तीन हज़ार अशर्फ़ियों का पारसल करा दिया हो; यद्यपि इस विचार