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प्रेम-द्वादशी

कर लिया। कोई उसके पकड़े जाने की सूचना लाता था। कोई कहता था—डाइरेक्टर हवालात के भीतर हो गये।

एकाएक सड़क पर से एक मोटर निकली, और बैंक के सामने आकर रुक गई। किसी ने कहा—बरहल के महाराज की मोटर है। इतना सुनते ही सैकड़ों मनुष्य मोटर की ओर घबराये हुए दौड़े, और उन लोगों ने मोटर को घेर लिया।

कुँअर जगदीशसिंह महारानी की मृत्यु के बाद वकीलों से सलाह लेने लखनऊ आये थे। बहुत कुछ सामान भी ख़रीदना था। वे इच्छाएँ, जो चिरकाल से ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा में थीं, बँधे पानी की भाँति राह पाकर उबली पड़ती थीं। यह मोटर आज ही ली गई थी। नगर में एक कोठी लेने की बातचीत हो रही थी। बहुमूल्य विलास-वस्तुओं से लदी एक गाड़ी बरहल के लिए चल चुकी थी। यहाँ भीड़ देखी, तो सोचा, कोई नवीन नाटक होनेवाला है, मोटर रोक दी। इतने में सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई।

कुँअर साहब ने पूछा—यहाँ आप लोग क्यों जमा हैं? कोई तमाशा होनेवाला है क्या?

एक महाशय, जो देखने में कोई बिगड़े रईस मालूम होते थे, बोले—जी हाँ, बड़ा मज़ेदार तमाशा है।

कुँअर—किसका तमाशा है?

वह—तक़दीर का।

कुँअर महाशय को यह उत्तर पाकर आश्चर्य तो हुआ; परन्तु सुनते आये थे, कि लखनऊवाले बात-बात में बात निकाला करते हैं; अतः उसी ढंग से उत्तर देना आवश्यक हुआ। बोले—तक़दीर का खेल देखने के लिए यहाँ आना तो आवश्यक नहीं।

लखनवी महाशय ने कहा—आपका कहना सच है; लेकिन दूसरी जगह यह मज़ा कहाँ? यहाँ सुबह से शाम तक के बीच में भाग्य ने कितनों को धनी से निर्धन और निर्धन से भिखारी बना दिया। सवेरे जो लोग महलों में बैठे थे, उन्हें इस समय वृक्ष की छाया भी नसीब नहीं।