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बैंक का दिवाला

जिनके द्वार पर सदावर्त ख़ुले थे, उन्हें इस समय रोटियों के लाले पड़े हैं। अभी एक सप्ताह पहले जो लोग काल-गति, भाग्य के खेल और समय के फेर को कवियों की उपमा समझते थे, इस समय उनकी आह और करुण-क्रन्दन वियोगियों को भी लज्जित करता है। ऐसे तमाशे और कहाँ देखने में आवेंगे?

कुँअर—जनाब, आपने तो पहेली को और गूढ़ कर दिया। देहाती हूँ, मुझसे साधारण तौर से बात कीजिए।

इस पर एक सज्जन ने कहा—साहब, यह नेशनल बैंक है। इसका दिवाला निकल गया है। आदाब-अर्ज़, मुझे पहचाना?

कुँअर साहब ने उसकी ओर देखा, तो मोटर से कूद पड़े, और उससे हाथ मिलाते हुए बोले—अरे मिस्टर नसीम? तुम यहाँ कहाँ? भाई, तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ।

मिस्टर नसीम कुँअर साहब के साथ देहरादून-कॉलेज में पढ़ते थे। दोनों साथ-साथ देहरादून की पहाड़ियों पर सैर करने जाया करते थे; परन्तु जब से कुँअर महाशय ने घर के झंझटों से विवश होकर कॉलेज छोड़ा, तब से दोनों मित्रों से भेंट न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर लखनऊ चले आये थे।

नसीम ने उत्तर दिया—शुक्र है, आपने पहचाना तो। कहिये, अब तो पौ-बारह हैं। कुछ दोस्तों की भी सुध है?

कुँअर—सच कहता हूँ, तुम्हारी याद हमेशा आया करती थी। कहो, आराम से तो हो? मैं रायल होटल में टिका हूँ, आज आओ, तो इतमीनान से बातचीत हो।

नसीम—जनाब, इतमीनान तो नेशनल-बैंक के साथ चला गया। अब तो रोज़ी की फिक्र सवार है। जो कुछ जमा-पूँजी थी, सब आपकी भेंट हुई। इस दिवाले ने फ़कीर बना दिया। अब आपके दरवाजे पर आकर धरना दूँगा।

कुँअर—तुम्हारा घर है। बेखटके आओ। मेरे साथ ही क्यों न चलो। क्या बतलाऊँ, मुझे कुछ भी ध्यान न था, कि मेरे इनकार करने