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बैंक का दिवाला

कुँअर साहब ने उसे पहचाना और उच्च स्वर से पुकारा—अरे शिवदास, इधर देखो।

शिवदास ने बोली सुनी; परन्तु सिर ऊपर न उठाया। वह अपने स्थान पर बैठा ही कुँअर साहब को देख रहा था। बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह जगदीरा के साथ गुल्ली-डण्डा खेलता था, जब दोनों बुड्ढे गफूर मियाँ का मुँह चिढ़ाकर घर में छिप जाते थे, जब वह इशारों से जगदीश को गुरु जी के पास से बुला लेता था, और दोनों रामलीला देखने चले जाते थे। उसे विश्वास था, कि कुँअरजी मुझे भूल गये होंगे, वे लड़कपन की बातें अब कहाँ? कहाँ मैं और कहाँ यह! लेकिन जब कुँअर साहब ने उसका नाम लेकर बुलाया, तो उसने प्रसन्न होकर मिलने के बदले उसने और भी सिर नीचा कर लिया, और वहाँ से टल जाना चाहा। कुँअर साहब की सहृदयता में अब यह साम्य-भाव न था; मगर कुँअर साहब उसे हटते देखकर मोटर से उतरे, और उसका हाथ पकड़कर बोले—अरे शिवदास, क्या मुझे भूल गये?

अब शिवदास अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डबडबा आये। कुँअर के गले से लिपट गया, और बोला—भूला तो नहीं; पर आपके सामने आते लज्जा आती है।

कुँअर—यहाँ दूध की दूकान करते हो क्या? मुझे मालूम ही न था, नहीं तो अठवारों से पानी पीते-पीते जुकाम क्यों होता? आओ, इस मोटर पर बैठ जाओ। मेरे साथ होटल तक चलो। तुमसे बातें करने को जी चाहता है। तुम्हें बरहल ले चलूँगा, और एक बार फिर गुल्ली-डण्डे का खेल खेलेंगे।

शिवदास—ऐसा न कीजिए, नहीं तो देखने वाले हँसेंगे। मैं होटल में आ जाऊँगा॥ वही हज़रतगंजवाले होटल में ठहरे हैं न?

कुँअर—अवश्य आओगे न?

शिवदास—आप बुलावेंगे, और मैं न आऊँगा?

कुँअर—यहाँ कैसे बैठे हो? दूकान तो चल रही है न?

शिवदास—आज सबेरे तक तो चलती थी। आगे का हाल नहीं मालूम।