पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२
प्रेम-द्वादशी


कुँअर—तुम्हारे रुपये भी बैंक में जमा थे क्या?

शिवदास—जब आऊँगा, तो बताऊँगा।

कुँअर साहब मोटर पर आ बैठे, और ड्राइवर से बोले—होटल की ओर चलो।

ड्राइवर—हुजूर ने ह्वाइटवे-कम्पनी की दूकान पर चलने की आज्ञा जो दी थी।

कुँअर—अब उधर न जाऊँगा।

ड्राइवर-जेकब साहब बारिस्टर के यहाँ भी न चलूँ?

कुँअर—(झुँझलाकर) नहीं, कहीं मत चलो। मुझे सीधे होटल पहुँचाओ।

निराशा और विपत्ति के इन दृश्यों ने जगदीश सिंह के चित्त में यह प्रश्न उपस्थित कर दिया था, कि अब मेरा क्या कर्तव्य है?

(६)

आज से सात वर्ष पूर्व, जब बरहल के महाराज ठीक युवावस्था में घोड़े से गिरकर मर गये थे, विरासत का प्रश्न उठा, तो महाराजा के कोई संतान न होने के कारण, वंश-क्रम मिलाने से उसके सगे चचेरे भाई ठाकुर रामसिंह को विरासत का हक पहुँचता था। उन्होंने दावा किया; लेकिन न्यायालयों ने रानी को ही हक़दार ठहराया। ठाकुर साहब ने अपीलें कीं, प्रिवी कौंसिल तक गये; परन्तु सफलता न हुई। मुकदमेबाज़ी में लाखों रुपए नष्ट हुए; अपने पास की मिलकियत भी हाथ से जाती रही; किन्तु हारकर भी वह चैन से न बैठे। सदैव विधवा रानी को छेड़ते रहे। कभी असामियों को भड़काते, कभी असामियों से रानी की बुराई कराते, कभी उन्हें जाली मुकदमों में फँसाने का उपाय करते; परन्तु रानी भी बड़े जीवट की स्त्री थी। वह भी ठाकुर साहब के प्रत्येक आघात का मुँहतोड़ उत्तर देती। हाँ, इस खींच-तान में उन्हें बड़ी-बड़ी रकमें अवश्य खर्च करनी पड़ती थीं। असामियों से रुपये न वसूल होते; इसलिए उन्हें बार-बार ऋण लेना पड़ता था; परन्तु कानून के अनुसार उन्हें ऋण लेने का अधिकार न था; इसलिए उन्हें या तो