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बैंक का दिवाला

इस व्यवस्था को छिपाना पड़ता था, या सूद की गहरी दर स्वीकार करनी पड़ती थी।

कुँअर जगदीशसिंह का लड़कपन तो लाड़-प्यार से बीता था; परंतु जब ठाकुर रामसिंह मुकदमेबाज़ी से बहुत तंग आ गये और यह संदेह होने लगा, कि कहीं रानी की चालों से कुँअर साहब का जीवन संकट में न पड़ जाय, तो उन्होंने विवश हो कुँअर साहब को देहरादून भेज दिया। कुँअर साहब वहाँ दो वर्ष तक तो आनन्द से रहे; किन्तु ज्योंही कॉलेज की प्रथम श्रेणी में पहुँचे, कि पिता परलोकवासी हो गये। कुँअर साहब को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बरहल चले आये। सिर पर कुटुम्ब-पालन और रानी से पुरानी शत्रुता के निभाने का बोझ आ पड़ा। उस समय से महारानी के मृत्यु-काल तक उनकी दशा बहुत गिरी रही। ऋण या स्त्रियों के गहनों के सिवा और कोई आधार न था। उस पर कुल-मर्यादा की रक्षा की चिन्ता भी थी। ये तीन वर्ष उनके लिए कठिन परीक्षा के समय थे। आए-दिन साहूकारों से काम पड़ता था। उनके निर्दय वाणों से कलेजा छिद गया था। हाकिमों के कठोर व्यवहार और अत्याचार भी सहने पड़ते; परन्तु सबसे हृदय-विदारक अपने आत्मीयजनों का बर्ताव था; जो सामने बात न करके बग़ली चंटें करते थे, मित्रता और ऐक्य की बाड़ में कपट का हाथ चलाते थे। इन कठोर यातनाओं ने कुँअर साहब को अधिकार, स्वेच्छाचार और धन-सम्पत्ति का जानी-दुश्मन बना दिया था। वह बड़े भावुक पुरुष थे। सम्बन्धियों की अकृपा और देश-बन्धुओं की दुर्नीति उनके हृदय पर काला चिह्न बनाती जाती थी; साहित्य-प्रेम ने उन्हें मानव-प्रकृति का तत्त्वान्वेषी बना दिया था और जहाँ यह ज्ञान उन्हें प्रतिदिन सभ्यता से दूर लिये जाता था, वहाँ उनके चित्त में जन सत्ता और साम्यवाद के विचार पुष्ट करता जाता था। उन पर प्रकट हो गया था, कि यदि सद्व्यवहार जीवित है, तो वह झोपड़ों और ग़रीबी में ही। उस कठिन समय में, जब चारों ओर अन्धेरा छाया हुआ था, उन्हें कभी-कभी सच्ची सहानुभूति का प्रकाश यहीं दृष्टिगोचर हो जाता था। धनसम्पत्ति को वह श्रेष्ठ प्रसाद नहीं, ईश्वर का प्रकोप समझते थे, जो मनुष्य