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बैंक का दिवाला


रात के दस बज गये थे। कुँअर साहब पलंग पर लेटे थे। बैंक के हाते का दृश्य आँखों के सामने नाच रहा था। वही विलाप-ध्वनि कानों में आ रही थी। चित्त में प्रश्न हो रहा था, क्या इस विडम्बना का कारण मैं ही हूँ? मैंने तो वही किया, जिसका मुझे कानूनन अधिकार था। यह बैंक के संचालकों की भूल है, जो उन्होंने बिना पूरी ज़मानत के इतनी बड़ी रक़म क़र्ज दे दी। लेनदारों को उन्हीं की गरदन नापनी चाहिये। मैं कोई खुदाई फ़ौजदार नहीं हूँ, कि दूसरों की नादानी का फल भोगूँ। फिर विचार पलटा, मैं नाहक इस होटल में ठहरा। चालिस रुपए प्रतिदिन भी व्यर्थ ही लिया। क्या आवश्यकता थी? मखमली गद्दे की कुर्सियों या शीशे के सामानों की सजावट से मेरा गौरव नहीं बढ़ सकता। कोई साधारण मकान पाँच रुपए किराये पर ले लेता, तो क्या काम न चलता? मैं और साथ के सब आदमी आराम से रहते। यही न होता, कि लोग निंदा करते। इसकी क्या चिंता। जिन लोगों के मत्थे यह ठाठ कर रहा हूँ, वे ग़रीब तो रोटियों को तरसते हैं। ये ही दस-बारह हज़ार रुपए लगाकर कुएँ बनवा देता, तो सहस्रों दीनों का भला होता। अब फिर लोगों के चकमें में न जाऊँगा। यह मोटरकार व्यर्थ है। मेरा समय इतना मँहगा नहीं है, कि घंटे-आध घंटे की किफायत के लिए दो सौ रुपये महीने का खर्च बढ़ा लूँ। फ़ाक़ा करनेवाले असामियों के सामने मोटर दौड़ाना उनकी छातियों पर मूँग दलना है। माना कि वे रोब में आ जायँगे, जिधर से निकल जाऊँगा, सैकड़ों स्त्रियाँ और बच्चे देखने के लिए खड़े हो जायँगे; मगर केवल इतने ही दिखावे के लिए इतना खर्च बढ़ाना मूर्खता है। यदि दूसरे रईस ऐसा करते हैं, तो करें, मैं उनकी बराबरी क्यों करूँ? अब तक दो हज़ार रुपए सालाने में मेरा निर्वाह हो जाता था। अब दो के बदले चार हज़ार बहुत हैं। फिर मुझे दूसरों की कमाई इस प्रकार उड़ाने का अधिकार ही क्या है? मैं कोई उद्योग-धंधा, कोई कारोबार नहीं करता, जिसका यह नफ़ा हो। यदि मेरे पुरुषों ने हठधर्मी और ज़बरदस्ती से इलाक़ा अपने हाथों में रख लिया, तो मुझे उनके