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प्रेम-द्वादशी

लूट के धन में शरीक होने का क्या अधिकार है? जो लोग परिश्रम करते हैं, उन्हें अपने परिश्रम का पूरा फल मिलना चाहिये। राज्य उन्हें केवल दूसरों के कठोर हाथों से बचाता है, उसे इस सेवा का उचित मुआवज़ा मिलना चाहिये। बस मैं तो राज्य की ओर से यह मुआवज़ा वसूल करने के लिए नियत हूँ| इसके सिवा इन ग़रीबों की कमाई में मेरा और कोई भाग नहीं। ये बेचारे दीन हैं, मूर्ख हैं, बेज़बान हैं। इस समय हम इन्हें चाहे जितना सता लें। इन्हें अपने स्वत्व का ज्ञान नहीं। ये अपने महत्त्व को नहीं समझते; पर एक समय ऐसा अवश्य आवेगा, जब इनके मुँह में भी ज़बान होगी, इन्हें भी अपने अधिकारों का ज्ञान होगा। तब हमारी दशा बुरी होगी। ये भोग-विलास मुझे अपने असामियों से दूर किये देते हैं। मेरी भलाई इसी में है, कि इन्हीं में रहूँ, इन्हीं की भाँति जीवन निर्वाह और इनकी सहायता करूँ। हाँ, तो इस बैंक के बारे में क्या करूँ? कोई छोटी मोटी रकम होती, तो कहता, लाओ, जिस तरह सिर पर बहुत से भार हैं, उसी तरह यह भी सही। मूल के अलावा कई हज़ार रुपए सूद के अलग हुए। फिर महाजनों के भी तो तीन लाख रुपए हैं। रियासत की आमदनी डेढ़-दो लाख रुपए सालाना है, अधिक नहीं। मैं इतना बड़ा साहस करूँ भी, तो किस बिरते पर; हाँ यदि वैरागी हो जाऊँ, तो संभव है, मेरे जीवन में—यदि कहीं अचानक मृत्यु न हो जाय तो—यह झगड़ा पाक हो जाय। इस अग्नि में कूदना अपने संपूर्ण जीवन, अपनी उमंगों और अपनी आशाओं को भस्म करना है। आह! इस दिन की प्रतीक्षा में मैंने क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे! पिताजी ने इसी चिन्ता में प्राण-त्याग किया। यह शुभ मुहुर्त्त हमारी अंधेरी रात के लिए दूर का दीपक था। हम इसी के आसरे जीवित थे। सोते-जागते सदैव इसी की चर्चा रहती थी। इससे चित्त को कितना संतोष और कितना अभिमान था। भूखे रहने के दिन भी हमारे तेवर मैले न होते थे। जब इतने धैर्य और संतोष के बाद अच्छे दिन आये, तो उससे कैसे विमुख हुआ जाय? और फिर अपनी ही चिंता तो नहीं, रियासत की उन्नति को कितनी ही स्कीमें सोच चुका हूँ। क्या अपनी इच्छाओं के