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प्रेम-द्वादशी

क्यों न भूल जाऊँ, कि मैं इस राज्य का स्वामी हूँ। ऐसे ही अवसरों पर मनुष्य की परख होती है। मैंने वर्षों पुस्तकावलोकन किया, वर्षों परोपकार-सिद्धान्तों का अनुयायी रहा। यदि इस समय उन सिद्धान्तों को भूल जाऊँ, और स्वार्थ को मनुष्यता और सदाचार से बढ़ने दूँ, तो वस्तुतः यह मेरी अत्यन्त कायरता और स्वर्थपरता होगी। भला स्वार्थ-साधन की; शिक्षा के लिए गीता, मिल, एमर्सन और अरस्तू का शिष्य बनने की क्या आवश्यकता थी? यह पाठ तो मुझे अपने दूसरे भाइयों से यों ही मिल जाता। प्रचलित प्रथा से बढ़कर और कौन गुरु था? साधारण लोगों की भाँति क्या मैं भी स्वार्थ के सामने सिर झुका दूँ? तो फिर विशेषता क्या रही? नहीं, मैं कानशंस (विवेक-बुद्धि) का खून न करूँगा। जहाँ पुण्य कर सकता हूँ, पाप न करूँगा। परमात्मन्, तुम मेरी सहायता करो, तुमने मुझे राजपूत-घर में जन्म दिया है। मेरे कर्म से इस महान् जाति को लज्जित न करो। नहीं, कदापि नहीं। यह गर्दन स्वार्थ के सम्मुख न झुकेगी। मैं राम, भीष्म और प्रताप का वंशज हूँ; शरीर-सेवक न बनूँगा।

कुँअर जगदीशसिंह को इस समय ऐसा ज्ञात हुआ, मानो वह किसी ऊँचे मीनार पर चढ़ गये हैं। चित्त अभिमान से पूरित हो गया। आँखें प्रकाशमान हो गईं; परन्तु एक ही क्षण में इस उमंग का उतार होने लगा, ऊँचे मीनार से नीचे की ओर आँखें गईं। सारा शरीर काँप उठा। उस मनुष्य की-सी दशा हो गई, जो किसी नदी के तट पर बैठा हुआ उसमें कूदने का विचार कर रहा हो।

उन्होंने सोचा, क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहमत होंगे? यदि मेरे कारण वे सहमत भी हो जायँ, तो क्या मुझे अधिकार है, कि अपने साथ उनकी इच्छाओं का भी बलिदान करूँ? और तो और माताजी कभी न मानेंगी, और कदाचित भाई लोग भी अस्वीकार करें। रियासत की हैसियत को देखते हुए वे कम-से-कम दस हज़ार सालाना के हिस्सेदार हैं और मैं उनके भाग में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता। मैं केवल अपना मालिक हूँ; परन्तु मैं भी तो अकेला नहीं हूँ। सावित्री