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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/४४

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बैंक का दिवाला

स्वयं चाहे मेरे साथ आग में कूदने को तैयार हो; किन्तु अपने प्यारे पुत्र को इस आँच के समीप कदापि न आने देगी।

कुँअर महाशय और अधिक न सोच सके। वह एक विकल दशा में पलँग पर से उठ बैठे और कमरे में टहलने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने जँगले से बाहर की ओर झाँका और किवाड़ खोलकर बाहर चले आये। चारों ओर अंधेरा था। उनकी चिन्ताओं की भाँति सामने अपार और भयंकर गोमती नदी बह रही थी। वह धीरे-धीरे नदी के तट पर चले गये और देर तक वहाँ टहलते रहे। आकुल-हृदय को जल-तरंगों से प्रेम होता है। शायद इसलिए कि लहरें व्याकुल हैं। उन्होंने अपने चंचल चित्त को फिर एकाग्र किया। यदि रियासत की आमदनी से ये सब वृत्तियाँ दी जायँगी, तो ऋण का सूद निकलना भी कठिन होगा। मूल का तो कहना ही क्या! क्या आय में वृद्धि नहीं हो सकती? अभी अस्तबल में बीस घोड़े हैं। मेरे लिये एक काफी है। नौकरों की संख्या सौ से कम न होगी। मेरे लिये दो भी अधिक हैं। यह अनुचित है, कि अपने ही भाइयों से नीच सेवाएँ कराई जायँ। उन मनुष्यों को मैं अपने सीर की ज़मीन दे दूँगा। सुख से खेती करेंगे, और मुझे आशीर्वाद देंगे। बगीचों के फल अब तक डालियो के भेंट हो जाते थे। अब उन्हें बेचूँगा, और सबसे बड़ी आमदनी तो बयाई की है। केवल महेशगंज के बाजार से दस हजार रुपए आते हैं। यह सब आमदनी महन्त जी उड़ा जाते हैं। उनके लिए एक हजार रुपये साल होना चाहिये। अब की इस बाजार का ठेका दूँगा। आठ हज़ार से कम न मिलेंगे। इन मदों से पचीस हज़ार रुपए की वार्षिक आय होगी। सावित्री और लल्ला (लड़के) के लिए एक हजार रुपया माहवार काफी हैं। मैं सावित्री से स्पष्ट कह दूँगा, कि या तो एक हज़ार रुपया मासिक लो और मेरे साथ रहो, या रियासत की आधी आमदनी ले लो, और मुझे छोड़ दो। रानी बनने की इच्छा हो, तो खुशी से बनो; परन्तु मैं राजा न बनूँगा।

अचानक कुँअर साहब के कानों में आवाज़ आई—'राम नाम सत्य है!' उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। कई मनुष्य एक लाश लिये आते थे।