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बैंक का दिवाला

आशीर्वाद की कमी न थी। बैंक के हज़ारों ग़रीब लेनदार सच्चे हृदय से उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे।

एक सप्ताह तक कुँअर साहब को सिर उठाने का अवकाश न मिला। मिस्टर जेकब का विचार सत्य सिद्ध हुआ। देना प्रतिदिन बढ़ता जाता था। कितने ही पुरनोट ऐसे मिले, जिनका उन्हें कुछ भी पता न था। जौहरियों और अन्य बड़े-बड़े दूकानदारों का लेना भी कम न था। अंदाजन तेरह-चौदह लाख का था। मीज़ान बीस लाख तक जा पहुँचा। कुँअर साहब घबराये। शंका हुई—ऐसा न हो, कि उन्हें भाइयों का गुज़ारा भी बंद करना पड़े, जिसका उन्हें कोई अधिकार नहीं था। यहाँ तक कि सातवें दिन उन्होंने कई साहूकारों को बुरा-भला कहकर सामने से दूर किया। जहाँ ब्याज की दर अधिक थी, उसे कम कराया और जिन रक़मों की मीयाद बीत चुकी थी, उनसे इनकार कर दिया।

उन्हें साहूकारों की कठोरता पर क्रोध आता था। उनके विचार में महाजनों को डूबते धन का एक भाग पाकर ही सन्तोष कर लेना चाहिये था। इतनी खींच-तान करने पर भी कुल देना उन्नीस लाख से कम न हुआ।

कुँअर साहब इन कामों से अवकाश पाकर एक दिन नेशनल-बैंक की ओर जा निकले। बैंक खुला हुआ था। मृतक शरीर में प्राण आ गये थे। लेनदारों की भीड़ लगी हुई थी। लोग प्रसन्न-चित्त लौटे जा रहे थे। कुँअर साहब को देखते ही सैकड़ों मनुष्य बड़े प्रेम से उनकी ओर दौड़े। किसी ने रो कर, किसी ने पैरों पर गिर कर और किसी ने सभ्यता-पूर्वक अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वह बैंक के कार्यकर्ताओं से भी मिले। लोगों ने कहा—इस विज्ञापन ने बैंक को जीवित कर दिया। बंगाली बाबू ने लाला साईंदास की आलोचना की—वह समझता था, संसार में सब मनुष्य भलमानस है। हमको उपदेश करता था। अब उसका आँख खुल गया है! अकेला घर में बैठा रहता है। किसी को मुँह नहीं दिखाता। हम सुनता है, वह यहाँ से भाग जाना चाहता था; परन्तु बड़ा साहब बोला, भागेगा, तो तुम्हारा ऊपर वारंट जारी कर देगा।