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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/४७

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प्रेम-द्वादशी

प्राण देने पर तत्पर होगी, क्या हर्ज है। मैं अपनी स्त्री-पुत्र तथा हित-मित्रादि के लिए सहस्रों परिवारों की हत्या न करूँगा। हाय! शिवदास को जीवित रखने के लिए मैं ऐसी कितनी रियासतें छोड़ सकता हूँ। सावित्री को भूखों रहना पड़े, लल्ला को मजदूरी करनी पड़े, मुझे द्वारद्वार भीख माँगनी पड़े, तब भी दूसरों का गला न दबाऊँगा। अब विलम्ब का अवसर नहीं। न जाने आगे यह दिवाला और क्या क्या आपत्तियाँ खड़ी करे। मुझे इतना आगा-पीछा क्यों हो रहा है? यह केवल आत्म-निर्बलता है; वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नहीं, जो किसी ने न किया हो। आये-दिन लोग लाखों रुपये दान-पुण्य करते हैं। मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान है। उससे क्यों मुँह मोडूँ? जो कुछ हो, जो चाहे सिर पड़े, इसकी क्या चिन्ता? कुँअर ने घंटी बजाई। एक क्षण में अरदली आँखें मलता हुआ आया।

कुँअर साहब बोले—अभी जेकब साहब बारिस्टर के पास जाकर मेरा सलाम दो! जाग गये होंगे। कहना ज़रूरी काम है। नहीं, यह पत्र लेते जाओ। मोटर तैयार करा लो।

(८)

मिस्टर जेकब ने कुँअर साहब को बहुत समझाया, कि आप इस दलदल में न फँसे, नहीं तो निकलना कठिन होगा। मालूम नहीं, अभी कितनी ऐसी रक़में हैं, जिनका आपको पता नहीं है; परन्तु चित्त में दृढ़ हो जानेवाला निश्चय चूने का फर्श है, जिसको आपत्ति के थपेड़े और भी पुष्ट कर देते है। कुँअर साहब अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। दूसरे दिन समाचार-पत्रों में छपवा दिया, कि मृत महारानी पर जितना कर्ज़ है वह हम सकारते हैं, और नियत समय के भीतर चुका देंगे।

इस विज्ञापन के छपते ही लखनऊ में खलबली पड़ गई। बुद्धिमानों की सम्मति में यह कुँअर महाशय की नितान्त भूल थी, और जो लोग क़ानून से अनभिज्ञ थे, उन्होंने सोचा, कि इसमें अवश्य कोई भेद है। ऐसे बहुत कम मनुष्य थे, जिन्हें कुँअर साहब की नीयत की सचाई पर विश्वास आया हो; परन्तु कुँअर साहब का बखान चाहे न हुआ हो,