पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३
आत्माराम


महादेव—हाँ याद है, आपका कितना नुकसान हुआ होगा?

पुरोहित—पचास रुपए से कम न होगा।

महादेव ने कमर से दो मोहरें निकालीं, और पुरोहितजी के सामने रख दीं।

पुरोहित की लोलुपता पर टीकाएँ होने लगीं। यह बेइमानी है, बहुत हो, तो दो-चार रुपए का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से पचास रुपये ऐंठ लिये। नारायण का भी डर नहीं। बनने को तो पण्डित; पर नीयत ऐसी खराब! राम-राम!!

लोगों को महादेव पर एक श्रद्धा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया; पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी न खड़ा हुआ। तब महादेव ने फिर कहा—मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गये हैं; इसलिए आज कथा होने दीजिये, मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थ यात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी विनती है, कि आप मेरा उद्धार करें।

एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोरों के भय से नींद न आती। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथा-योग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहाँ तक कि महीना पूरा हो गया, और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब महादेव को ज्ञात हुआ, कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार है। अब उसे मालूम हुआ, कि संसार बुरों के लिए बुरा है और अच्छों के लिए अच्छा।

(६)

इस घटना को हुए पचास वर्ष बीत चुके हैं। आप बेंदो जाइए, तो दूर ही से एक सुनहला कलस दिखाई देता है। वह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकड़ता, तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिह्न है, उनके संबन्ध