पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
प्रेम-द्वादशी

का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पत्तियों को, कभी छबिमयी हरियाली को, और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को।

एकाएक उन्हें सामने घास पर कागज़ की एक पुड़िया दिखाई दी। माया ने जिज्ञासा की—आड़ में चलो, देखें इस में क्या है?

बुद्धि ने कहा—तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो।

लेकिन जिज्ञासा-रूपी माया की जीत हुई। व्रजनाथ ने उठकर पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोल कर देखा; सावरेन थे! गिना, पूरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।

व्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठो सावरेन हाथ में लिये सोचने लगे—इन्हें क्या करूँ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नज़र पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाय! नहीं, यहाँ रहना उचित नहीं। चलूँ, थाने में इत्तला कर दूँ, और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे, वह आप ले जायगा या अगर उसको न भी मिलें, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा; मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा!

माया ने परदे की आड़ से मन्त्र मारना शुरू किया। वह थाने नहीं गये, सोचा—चलूँ भामा से एक दिल्लगी करूँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।

भामा ने सावरेन देखे, हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा—किसकी हैं?

व्रज॰—मेरी।

भामा—चलो, कहीं हों न!

व्रज॰—पड़ी मिली हैं।

भामा-झूठी बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो, तो सच बताओ, कहाँ मिली? किसकी हैं?

व्रज॰—सच कहता हूँ, पड़ी मिली हैं।

भामा—मेरी क़सम?