दुर्गा का मन्दिर
बाबू व्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नू रोता था, कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।
व्रजनाथ ने क्रुद्ध होकर भामा से कहा—तुम इन दुष्टों को यहाँ से हटाती हो कि नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।
भामा चूल्हे में आग जला रही थी; बोली—अरे तो अब क्या सन्ध्या को भी पढ़ते ही रहोगे? ज़रा दम तो ले लो।
व्रज॰—उठा तो न जायगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी! अभी एक-आध को पटक दूँगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी, कि हाय हाय! बच्चे को मार डाला!
भामा—तो मैं कुछ बैठी या सोई तो नहीं हूँ। ज़रा एक घड़ी तुम्हीं लड़कों को बहलाओगे, तो क्या होगा! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखाई।
व्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पाकर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि व्रजनाथ नैतिक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे; पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखाई दी। मुद्दई और मुद्दालेह, दोनों को एक ही लाठी हाँका, और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़ कानून का ग्रन्थ बगल में दबा कॉलेज-पार्क की राह ली।
(२)
सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादरें ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन का राग गाता था, और बगले डालियों पर बैठे हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर जा बैठे और किताब खोली; लेकिन इस ग्रन्थ की अपेक्षा प्रकृति ग्रन्थ