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प्रेम-द्वादशी

बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादह नहीं तीस रुपए दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला लूँगा। आज तीस तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपए मिल जायँगे।

व्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे; किन्तु बड़प्पन की हवा बाँध रखी थी। यह मिथ्यभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही वह बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को निछावर कर दिया करते थे। लेकिन भामा को इस विषय में उनसे सहानुभूति न थी इसीलिए जब व्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट आ पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारवारिक शान्ति अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनमें इनकार करने या टालने की हिम्मत न थी।

वइ कुछ सकुचते हुए भामा के पास गये, और बोले—तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुन्शी गोरेलाल माँग रहे हैं।

भामा ने रुखाई से कहा—मेरे पास तो रुपए नहीं हैं।

व्रज॰—होंगे तो ज़रूर, बहाना करती हो।

भामा॰—अच्छा, बहाना ही सही।

ब्रज॰—तो मैं उनसे क्या कह दूँ?

भामा॰—कह दो, घर में रुपए नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।

ब्रज—कहने को तो मैं कह दूँ; लेकिन उन्हें विश्वास न आवेगा। समझेंगे बहाना कर रहे हैं।

भामा—समझेंगे, तो समझा करें।

व्रज॰—मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ?

भामा—अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी, मेरे पास रुपए नहीं हैं।

ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था, कि भामा के