पास रुपए हैं। लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर दिया। सन्दूक से दो गिन्नियाँ निकालीं, और गोरेलाल को देकर बोले—भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपए दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था—यदि कल रुयए न पहुँचे, तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँँह दिखाने योग्य न रहूँगा।
गोरेलाल ने मन में कहा—अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी और मिन्नियाँ जेब में रखकर घर की राह ली।
(४)
आज पहली तारीख़ की संध्या है। व्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इन्तज़ार कर रहे हैं।
पाँच बज गये, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ़ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था; लेकिन पढ़ने में जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे, लेकिन सोचते थे—आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है; आते ही होंगे। छः बजे; गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। ज़रूर वही हैं। वैसी ही अचकन है। वैसी ही टोपी। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं। इसी तरफ़ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालूम हुआ; लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ, कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गई।
ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े हो, सड़क पर दोनों तरफ़ निगाह दौड़ाई। कहीं पता नहीं।
दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देखकर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता!
सात बजे चिराग़ जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ