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प्रेम-द्वादशी

सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाये; लेकिन हृदय काँप रहा था, कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझे कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये, कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ गोरेलाल हैं। मुड़े, और सीधे बरामदे में आकर दम लिया; लेकिन फिर वही धोखा! फिर वही भ्रांति! तब सोचने लगे, कि इतनी देर क्यों हो रही है? क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल पाने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे रात को कौन जाय, या जान-बूझकर बैठ रहे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको ग़रज़ थी, इस समय मुझे ग़रज़ है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ? लेकिन किसे भेजूँ। मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर, मकान है। यह सोचकर कमरे में गये, लैंप जलाया और पत्र लिखने बैठे; मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। तुरन्त पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोले—भाई, इस समय फुरसत नहीं है; थोड़ी देर में आना। उसने कहा—बाबूजी घर-भर के आदमी घबराये हैं, ज़रा एक निगाह देख लीजिये। निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नज़र से देखकर बोले—कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरते-डरते कहा—बाबूजी, इतना और देख लीजिये, किसने भेजा है। इस पर व्रजनाथ ने तार को फेंक दिया, और बोले—मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।

आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आप ही जाना चाहिये, बला से बुरा मानेंगे। इनकी कहाँ तक चिन्ता करूँ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपए दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्त्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी, घर में