पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
प्रेम-द्वादशी

दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे से उतर आये। घर चले, तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन-भर का थका-माँदा पथिक हो।

(५)

व्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धूर्त्तता पर क्रोध आता था, कभी अपनी सरलता पर। मालूम नहीं, किसी ग़रीब के रुपए हैं! उस पर क्या बीती होगी! लेकिन अब क्रोध या खेद से क्या लाभ? सोचने लगे—रुपए कहाँ से आवेंगे, भामा पहले ही इनकार कर चुकी है; वेतन में इतनी गुंजायश नहीं। दस-पाँच रुपए की बात होती, तो कोई कतर-ब्योंत करता। तो क्या करूँ? किसी से उधार लूँ? मगर मुझे कौन देगा? आज तक किसी से माँगने का संयोग नहीं पड़ा, और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं! जो लोग हैं, वे मुझी को सताया करते हैं; मुझे क्या देंगे। हाँ, यदि कुछ दिन क़ानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपए मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गई है। हा निर्दयी? तूने बड़ी दग़ा की। न जाने किस जन्म का वैर चुकाया। कहीं का न रखा!

दूसरे दिन से व्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सवेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते, संध्या को कचहरी से तजवीज़ों का पुलिंदा घर लाते, और आधी रात तक बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठाने की मुहलत न मिलती। कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़ रहते।

लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ आता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भामा कभी-कभी झुँझलाकर कहती—अजी लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे-जैसे दस-पाँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता। व्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग्य का उत्तर न देते; दिन निकलते ही फिर वही चरख़ा ले बैठते।