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दुर्गा का मन्दिर


यहाँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये, और पचीस रुपए हाथ आ गये। व्रजनाथ सोचते थे—दो-तीन दिन में बेड़ा पार है; लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचण्ड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी। शय्या-सेवी बन गये। भादों का महीना था। भामा ने समझा, पित्त का प्रकोप है; लेकिन जब एक सप्ताह तक डॉक्टर की औषधि-सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा, तब वह घबराई। व्रजनाथ प्रायः ज्वर में बक-झक भी करने लगते। भामा सुनकर डर के मारे कमरे में से भाग जाती। बच्चों को पकड़कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है। कौन जाने, रुपएवाले ने कुछ कर-धर दिया हो! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता।

संकट पड़ने पर हम धर्मभीरु हो जाते हैं, औषधियों से निराश होकर देवतों की शरण लेते हैं। भामा ने भी देवतों की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीज के सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नवरात्र का कठिन व्रत शुरू किया।

आठ दिन पूरे हो गये। अन्तिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने व्रजनाथ को दवा पिलाई और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मन्दिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मन्दिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगन्ध उड़ रही थी। उसने मन्दिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविन्द पर एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्ज्वल नेत्रों से प्रभा की किरणें छिटक रही थीं। पवित्रता का एक समा-सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिवर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उस के अन्तःकरण में एक निर्मल विशुद्ध, भाव-पूर्ण भय का उदय हो आया। उसने आँखें बन्द कर लीं। घुटनों के बल बैठ गई, और हाथ जोड़कर करुण स्वर से बोली—माता, मुझ पर दया करो।