पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/८

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शांति

मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया। बोली-मेरे लिए तो यही बहुत है, अंगरेजी पुस्तके कैसे समझूँ।।

बावुनी--कोई कठिन बात नहीं । एक घंटे भी रोज़ पड़ो, तो थोड़े ही समय में काफ़ी योग्यता प्राप्त कर सकती हो ; पर तुमने तो मानो मेरी बातें न मानने की सौगंध ही खा ली है। कितना समझाया, कि मुझसे शर्म करने की आवश्यता नहीं ; पर तुम्हारे ऊपर कुछ असर न पड़ा। कितना कहता हूँ, कि ज़रा सफ़ाई ने रहा करो ; परमात्मा सुन्दरता देता है, तो चाहता है, कि उसका श्रृंगार भी होता रहे ; लेकिन जान पड़ता है, तुम्हारी दृष्टि में उसका कुछ भी मूल्य नहीं या शायद तुम सम- झती हो कि मेरे-जैसे कुरूप मनुष्य के लिए तुम चाहे जैसे भी रहो, आवश्यकता से अधिक अच्छी हो । यह अत्याचार मेरे ऊपर है। तुम मुझे ठोक-पीटकर वैराग्य सिखाना चाहती हो । जब मैं दिन-रात मेहनत करके कमाता हूँ, तो स्वभावतः मेरी यह इच्छा होती है कि उस द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो ; परन्तु तुम्हारा फूहड़पन और पुराने विचार, मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर देते हैं। स्त्रियाँ केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति की सेवा करने और एकादशी व्रत रख़ने के लिए नहीं हैं, उनके जीवन का लक्ष्य इमने बहुत ऊँचा है । वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी हैं। उन्हें मनुष्यों की भांति स्वतंत्र रहने का भी अधिकार प्राप्त है। मुझे तुम्हारी यह बंदी-दशा देखकर बड़ा कष्ट होता है । स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी मानी गई है ; लेकिन तुम मेरी मानसिक या सामा- जिक, किसी आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकतीं। मेरा और तुम्हारा धर्म अलग, आचार-विचार अलग, आमोद-प्रमोद के विषय अलग। जीवन के किसी कार्य में मुझे तुमने किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती । तुम स्वयं विचार सकती हो, कि ऐसी दशा में मेरी ज़िन्दगी कैसी बुरी तरह कट रही है।

बाबूजी का कहना बिलकुल यथार्थं था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भाँति पड़ी हुई थी। उस दिन से मैंने उन्हीं के कहे अनुसार