पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रेम-द्वादशी

चलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली ; अपने देवता को किस भाँति असप्रन्न करती?

( २ )

यह तो कैसे कहूँ, कि मुझे पहहने-ओढ़ने से प्रेम न था । था, और उतना ही था, जितना दुसरी स्त्रियों को होता है। जब बालक और वृद्ध तक शृङ्गर पसन्द करते हैं, तो मैं तो युवती ठहरी । मन भीतर-ही- भीतर मचलकर रह जाता था। मेरे मायके में मोटा खाने और मोटा पहनने की चाल थी। मेरी माँ और दादी हाथों से सूत कातती थीं, और जुलाहे से उसी मूत के कपड़े बुनवा लिये जाते थे। बाहर बहुत कपड़े आते थे। मैं कभी जरा महीन काड़ा पहनना चाहती या शृङ्गार की रुचि दिखाती, तो अम्मी कौरन टोकतों और समझाती, कि बहुत बनाव मैबार भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता। ऐसी आदत अच्छी नहीं । यदि कभी वह मुझे, दर्पण के सामने देख लेतीं, तो झिड़- कने लगती : परन्तु अब बाबूजी की ज़िद से मेरी यह मिमक जाती रही। मेरी सास और ननदें मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भौं सिकोड़ती ; पर मुझे अब उनकी परवा न थी। बाबूजी की प्रेम-परिपूर्ण-दृष्टि के लिए मैं झिड़कियाँ भी सह सकती थी। अब उनके और मेरे विचारों में समा- नता पाती जाती थी। वह अधिक प्रसन्न-चित्त जान पड़ते थे । वह मेरे लिए फ़ैशनेबुल साड़ियाँ, सुन्दर जाकटें, चमकते हुए जूते और कामदार स्लीपर लाया करते ; पर मैं इन वस्तुओं को धारण कर किसी के सामने न निकलती, ये वस्त्र केवल बाबूजी के ही सामने पहनने के लिए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-ठनी देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्नता के लिए क्या नहीं कर सकती ? अब घर के काम- काज में मेरा जी न लगता था। मेरा अधिक समय बनाव-शृंगार तथा पुस्तकावलोकन में ही बीतने लगा । पुस्तकों से मुझे प्रेम होने लगा था।

यद्यपि अभी तक मैं अपने सास-ससुर का लिहाज़ करती थी, उनके सामने बूट और गाउन पहनकर निकलने का मुझे साहस न होता था ;