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प्रेम-द्वादशी

साथ और अकेले भी बड़ी कोशिश करते थे। अपने मकान पर बुलाकर दूकानदारों को समझाते, अनुनय-विनय करते, आँखें दिखाते, इक्के-बग्घीवालों को धमकाते, मज़दूरों की खुशामद करते; पर कांग्रेस के मुट्ठी भर आदमियों का कुछ ऐसा आतंक छाया हुआ था, कि कोई इनकी सुनता ही न था। यहाँ तक कि पड़ोस की कुँजड़िन ने भी निर्भय होकर कह दिया—हुजूर, चाहे मार डालो; पर दूकान न खुलेगी। नाक न कटवाऊँगी। सबसे बड़ी चिन्ता यह थी, कि कहीं पण्डाल बनानेवाले मज़दूर, बढ़ई, लोहार वग़ैरह काम न छोड़ दें; नहीं तो अनर्थ ही हो जायगा। राय साहब ने कहा—हुजूर, दूसरे शहरों से दूकानदार बुलवायें और एक बाज़ार अलग खोलें।

खाँ साहब ने फ़रमाया—वक्त इतना कम रह गया है, कि दूसरा बाज़ार तैयार नहीं हो सकता। हुजूर कांग्रेसवालों को गिरफ़्तार कर लें, या उनकी जायदाद जंब्त कर लें, फिर देखिये कैसे काबू में नहीं आते!

राजा साहब बोले—पकड़-धकड़ से तो लोग और भी झल्लायेंगे। कांग्रेसवालों से हुज़ूर कहें, कि तुम हड़ताल बन्द कर दो, तो सबको सरकारी नौकरी दे दी जायगी। उसमें अधिकांश बेकार लोग भरे पड़े हैं, यह प्रलोभन पाते ही फूल उठेंगे।

मगर मैजिस्ट्रेट को कोई राय न जँची। यहाँ तक कि वायसराय के आने में तीन दिन और रह गये।

(२)

आखिर राजा साहब को एक युक्ति सूझी। क्यों न हम लोग भी नैतिक बल का प्रयोग करें? आख़िर कांग्रेसवाले धर्म और नीति के नाम पर ही तो यह तूमार बाँधते हैं। हम लोग भी उन्हीं का अनुकरण करें, शेर को उसके माँद में पछाड़ें। कोई ऐसा आदमी पैदा करना चाहिये, जो व्रत करे, कि दुकानें न खुलीं, तो मैं प्राण दे दूँगा। यह ज़रूरी है, कि वह ब्राह्मण हो, और ऐसा, जिसको शहर के लोग मानते हों, आदर करते हों। अन्य सहयोगियों के मन में भी यह बात बैठ गई। उछल पड़े।