राय साहब ने कहा—बस अब पड़ाव मार लिया। अच्छा, ऐसा कौन पण्डित है, पण्डित गदाधर शर्मा?
राजा साहब—जी नहीं, उसे कौन मानता है? खाली समाचारपत्रों में लिखा करता है। शहर के लोग उसे क्या जानें?
राय साहब—दमड़ी ओझा तो है इस ढंग का?
राजा साहब—जी नहीं, कॉलेज के विद्यार्थियों के सिवा उसे और कौन जानता है?
राय साहब—पण्डित मोटेराम शास्त्री?
राजा साहब—बस-बस। आपने खूब सोचा। बेशक वह है इस ढंग का! उसी को बुलाना चाहिये। विद्वान् है, धर्म-कर्म से रहता है, चतुर भी है। वह अगर हाथ में आ जाय, तो फिर बाज़ी हमारी।
राय साहब ने तुरन्त पण्डित मोटेराम के घर संदेशा भेजा। उस समय शास्त्रीजी पूजा पर थे। यह पैग़ाम सुनते ही जल्दी से पूजा समाप्त की, और चले। राजा साहब ने बुलाया है, धन्य भाग! धर्मपत्नी से बोले—आज चन्द्रमा कुछ बली मालूम होते हैं। कपड़े लाओ, देखूँ क्यों बुलाया है।
स्त्री ने कहा—भोजन तैयार है, कर के जाओ; न जाने कब लौटने का अवसर मिले।
किन्तु शास्त्रीजी ने आदमी को इतनी देर खड़ा रखना उचित न समझा। जाड़े के दिन थे। हरी बनात की अचकन पहनी, जिस पर लाल शंजाफ़ लगी हुई थी। गले में एक ज़री का दुपट्टा डाला। सिर पर बनारसी साफ़ा बाँधा। लाल चौड़े किनारे की रेशमी धोती पहनी, और खड़ाऊँ पर चले। उनके मुख से ब्रह्म-तेज टपकता था। दूर ही से मालूम होता था, कोई महात्मा आ रहे हैं। रास्ते में जो मिलता, सिर झुकाता। कितने ही दूकानदारों ने खड़े होकर पैलगी की। आज काशी का नाम इन्हीं की बदौलत चल रहा है; नहीं तो और कौन रह गया है। कितना नम्र स्वभाव है। बालकों से हँसकर बातें करते हैं। इस ठाट से पण्डितजी राजा साहब के मकान पर पहुँचे। तीनो मित्रों ने खड़े